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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/५४ चरमशरीरी धर्मात्मा आ पहुँचे....राम और हनुमान का प्रथमबार मिलन हुआ....दोनों साधर्मी एक-दूसरे को देखकर परम प्रसन्न हुए। श्री राम की गंभीर मुद्रा और अद्भुत रूप देखकर पवनपुत्र का चित्त प्रसन्नता से नम्रीभूत हो गया। श्री राम भी अंजना पुत्र को देखते ही प्रसन्नता से उनके पास आकर मिले....। “अहो, कैसा अद्भुत होगा ये दृश्य ! कि राम और हनुमान जैसे दो मोक्षमागी महापुरुष एक-दूसरे से कैसे मिलते होंगे ? वाह रे वाह जैनधर्म! तेरा साधर्मीवात्सल्य जगत में अजोड़ है। सच्चा सम्बन्ध साधर्मी का।" सीता के विरह में उदास होने पर भी जिसका पुण्य-प्रताप छिपा रह नहीं सकता - ऐसे श्रीराम का प्रताप देखकर आश्चर्य से युक्त हनुमान कहने लगे – “हे देव ! किसी की प्रशंसा करना हो तो परोक्ष में करना चाहिये, प्रत्यक्ष में नहीं करना चाहिये - ऐसा व्यवहार है, परन्तु आपके गुणों की जो महिमा हमने सुनी थी, उससे भी अधिक गुण आज प्रत्यक्ष देखे। आप ही इस भरत क्षेत्र के स्वामी हो। आपने हमारे ऊपर बड़ा उपकार किया है। हम आपकी क्या सेवा करें ? उपकार करने वालों की सेवा जो नहीं करते, उनके भावों में शुद्धता नहीं होती। जो उपकार भूल कर कृतघ्नी होते हैं, वे दुर्बुद्धि जीव न्याय से विमुख हैं; इसलिए हे राघव ! हमें शरीर छोड़कर भी आपका काम करना पड़े तो भी शीघ्र करेंगे। आप चिन्ता छोड़ो, अब थोड़े ही समय में आप सीता का मुख देखेंगे। मैं अभी लंका जाता हूँ और सीता का संदेश लाता हूँ।" . तब श्रीराम ने अत्यंत प्रीति से एकांत में हनुमान से कहा - “हे वायुपुत्र ! तुम हमारे परम मित्र हो, सीता को कहना कि - हे महासती ! तेरे वियोग में राम को एक क्षण भी चैन नहीं पड़ता; तुम महा शीलवंती सती धर्मात्मा अभी परवश में हो, परन्तु धैर्य रखना, वियोग में कहीं तुम प्राण नहीं छोड़ देना। आर्त-रौद्र ध्यान न करके जैनधर्म की ही शरण रखना । पूर्व के पुण्य-पाप के अनुसार संयोग-वियोग तो होते ही हैं।
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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