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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/४५ सीता राम का विरह में भी शील में अडिग - लंका में रावण ने एक अत्यन्त मनोहर देवी-बगीचे में सीता को रखा....परन्तु सीता को राम के बिना कहीं चैन नहीं....।।
उसने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक राम-लक्ष्मण के कुशल-क्षेम की बात न सुन लूँ, तब तक मेरे आहार-जल का त्याग है। दिन-रात उसे चिन्ता हो रही थी कि राम-लक्ष्मण युद्ध में गये थे, उनका क्या हुआ होगा? यहाँ उनके समाचार कौन देगा; वह भी जितने समय पंचपरमेष्ठी में चित्त को लगाती है, उतने समय संसार के सर्व दु:खों को भूल जाती है। वाह, पंचपरमेष्ठी भगवंतो ! तुम्हारा प्रताप अजोड़ है ! हमारे हृदय में जब तक तुम्हारी उपस्थिति है, तब तक संसार का कोई दुःख टिक नहीं सकता।
लंका में जैसे राम के विरह में सीता उदास है, वैसे ही पाताल लंका में सीता के विरह में राम भी उदास हैं तथा जैसे राम उदास हैं, वैसे रावण भी सीता के बिना उदास है। वहाँ उसकी पटरानी मंदोदरी उससे पूछती है -“तुम तीन खंड के स्वामी हो, फिर भी इतने उदास क्यों हो ?" ,
तब रावण उससे सीता की बात बताते हुए कहता है कि हे रानी ! “सीता के बिना मुझे चैन नहीं है।"
मंदोदरी कहती है – “आप तो महा शक्तिशाली हो, तो सीता को जबरदस्ती वश में क्यों नहीं करते ?"
तब रावण कहता है – “सुनो देवी ! मैंने अनंतवीर्य केवलीप्रभु के समीप ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी, उसे मैं नहीं भोगूंगा, उस पर बलात्कार नहीं करूँगा और सीता मुझे जरा भी चाहती नहीं, इसलिए मैं मेरी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकता।"
देखो! एक छोटा-सा नियम भी रावण को कितना उपयोगी हुआ, इस नियम ने ही उसे सीता पर बलात्कार करने से रोका।
रावण की बात सुनकर मंदोदरी विचार में पड़ गई - “अहो ! तीन खंड का जो स्वामी और अद्भुत जिसका रूप -