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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/४४ सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान-चारित्र नहीं शोभते, वैसे ही सीता के बिना रामलक्ष्मण नहीं शोभते थे। सीता के साथ तो वन में भी अच्छा लगता था, सीता के बिना राजमहल में भी अच्छा नहीं लगता। सीता के बिना राम गुमसुम उदासचित्त रहते हैं....एक चैतन्य परिणति के अलावा अन्यत्र कहीं उनका चित्त नहीं लगता था। वे जितने समय जिन-मंदिर में जाकर बैठते थे, उतने समय उनके चित्त में शांति रहती थी और सीता के विरह का दुःख कम होता था। लक्ष्मण, विराधित वगैरह सभी राम को प्रसन्न रखने के लिए अनेक उपाय करते थे, सीता के भाई भामण्डल को भी . संदेश भेजकर बुला लिया था।
दूसरी ओर आकाशमार्ग से सूर्य से भी ऊपर रावण का विमान जा रहा था, क्योंकि विद्याधर तो मेरु पर्वत के छोर तक भी जाते हैं और सूर्यचन्द्र तो मेरुपर्वत की अपेक्षा बहुत नीचे हैं अर्थात् सूर्य-चन्द्र से भी ऊपर गमन करना विद्याधर मनुष्यों के लिए सहज है) उस समय रत्नजटी नाम के विद्याधर को सीता के रुदन की आवाज सुनाई पड़ी, इस कारण उसने रावण को रोका और कहा -
“अरे दुष्ट ! इस धर्मात्मा-सीता को तू छोड़ दे, सती को सताने का महान अपराध करके तू कहाँ जायेगा ? ये सीता श्री रामचन्द्रजी की रानी और मेरे मित्र भामण्डल की सगी बहन है, उसे तू छोड़ दे।" .
परन्तु रावण ने उसकी एक न सुनी और उसकी विद्यायें हर लीं, इससे वह नीचे गिर पड़ा।
रावण सीता को लेकर लंका पहुँचा....उसका मन सीता में मोहित है, वह सीता में भी मोह उत्पन्न करने के लिए बहुत विनती करता है, परन्तु ये तो सीता है !....अरे रावण ! तू घर भूला है ! तू विवेक भूला है ! जैसे मणिधर नाग के शिर में से उसके जीवित रहते कोई उसका मणि निकाल नहीं सकता, वैसे ही सीता के हृदय में राम के अलावा कोई मोह नहीं उत्पन्न करा सकता।