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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/४६ ऐसे रावण को भी जो नहीं चाहती, वह सीता कितनी महान होगी? और रावण जैसा १४ हजार सुन्दर-सुन्दर रानियों का स्वामी, जिसके रूप पर मोहित है, वह सीता कितनी सुन्दर होगी ?" मंदोदरी को ऐसा लगा – “मैं सीता के पास जाऊँ और उसे मनाकर अपने स्वामी का दुःख मिटाऊँ !" वह सीता के पास गई, उसे देखकर वह भी आश्चर्य चकित हो गई थी। उसने कहा - “हे देवी सीता ! तू रावण के ऊपर प्रसन्न हो ! उसकी इच्छा के वश हो, राम की आशा छोड़ दे। यहाँ तेरा राम तुझे छुड़ाने आ सके - ऐसा तो है नहीं। ये तो बड़े भारी समुद्र के बीच विद्याधरों की लंका नगरी है; इसलिए तू शोक छोड़कर प्रसन्न हो और रावण की रानी बन जा! व्यर्थ का दु:ख मत कर।" तब जिसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं - ऐसी सीता कहने लगी - “हे देवी! आप तो मेरी माता समान हो, आप स्वयं पतिव्रता होने पर भी ऐसे नीति-विरुद्ध वचन क्यों बोलती हो ? ये तुम्हें शोभा नहीं देता, रावण का अति सुन्दर रूप हो या उसकी तीन खंड की राज-संपदा हो, उसे मैं अपने शीलव्रत के सामने सर्वथा तुच्छ समझती हूँ।" (सती मंदोदरी के चरित्र के साथ न्याय करने की खातिर एक बात का यहाँ उल्लेख करना उचित है। "कितने ही पुराणों में ऐसा भी आता है कि सती मंदोदरी ने रावण को इस दुष्कृत्य से रोकने का बहुत प्रयत्न किया तथा सीता को भी अपनी पुत्री समान समझ कर आश्वासन तथा हिम्मत दी कि - "बेटी सीता! तू किसी भी प्रकार से रावण के वश नहीं होना! शीलधर्म में अडिग रहना.... घबड़ाना मत !") ___अभी मंदोदरी और सीता की बात चल ही रही थी कि कामातुर रावण वहाँ आ पहुँचा। तब सीता ने उसका तिरस्कार करके क्रोध में कहा - “अरे पापी ! दुष्ट ! तू मुझसे दूर रहना, मुझे छूना मत !"
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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