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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/४३
लक्ष्मण ने राम को सचेत करते हुए कहा " अरे बन्धु ! उठोउठो ! ऐसे जमीन पर कैसे सो रहे हो ? सीताजी कहाँ हैं ?"
तब राम ने सचेत हुए, लक्ष्मण को कुशल देखकर थोड़ा संतोष हुआ; उसे हृदय से लगाकर राम रो पड़े और कहा
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“हे लक्ष्मण ! सीता कहाँ गई – ये मैं नहीं जानता, कोई उसे ले गया या सिंह उसे खा गया ? उसकी मुझे खबर नहीं ।"
लक्ष्मण ने उन्हें धैर्य बँधाया और विद्याधरों को आज्ञा की
बंधाया
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“जहाँ से हो, वहाँ से सीता का शीघ्र पता लगाकर आओ” विद्याधरों ने बहुत शोधा (खोजा), परन्तु सीता कहीं दिखाई नहीं पड़ी, इससे राम हतास हो गये
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"अरे हम माता-पिता, भाई, कुटुम्ब और राज्य सभी को छोड़कर यहाँ वन में आये, यहाँ भी असाता कर्मों ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा.... अरे, विचित्र है संसार की गति !"
तब पाताल लंका के नये राजा विद्याधर विराधित ने उन्हें धैर्य
“हे स्वामी ! धैर्य ही महापुरुषों का सर्वस्व है। सभी प्रसंगों में धैर्य के समान दूसरा कोई उपाय नहीं । आपका पुण्य - प्रताप महान है, इससे थोड़े ही दिनों में आप सीतादेवी को जरूर देखोगे, इसलिए शोक छोड़ो और अब मेरे साथ पाताल लंका में आकर रहो । वहाँ से सब उपाय करेंगे । इस वन में रहना अब उचित नहीं, क्योंकि रावण के बहनाई खरदूषण को हमने मारा है, इसलिए उसके मित्र विद्याधर राजा वैर लिये बिना नहीं रहेंगे; उसमें भी हनुमान जैसा महान शूरवीर, वह भी खरदूषण का जमाई है - वह भी खरदूषण के मरण की बात सुनते ही एकदम क्रोधित होगा, इसलिए आप सुरक्षित स्थान में आकर रहो ।"
राम और लक्ष्मण दोनों भाई उदास होकर विराधित के साथ पाताल लंका की अलंकारोदय नगरी को चले.... दोनों उदास हैं । जैसे