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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/४२
औदयिक भाव के समय भी उदयभाव, उदयभाव का काम करते हैं; ज्ञानचेतना, ज्ञानचेतना का काम करती है; दोनों का कार्य अत्यन्त भिन्नभिन्न है। अकेले औदयिक भावों में राम को नहीं देखना, उनसे भिन्न ज्ञानचेतना रूप राम को भी देखना, तभी तुम राम को पहिचान सकोगे । अकेले उदयभावों से राम को पहिचानोगे तो राम के साथ अन्याय करोगे, तुम्हारा ज्ञान भी मिथ्या नाम पायेगा ।
जैन महापुरुषों के जीवन की खूबी ही यह है कि उदयभावों के बीच भी चैतन्यभाव की मीठी, मधुर, शांतधारा उनके जीवन में निरन्तर बहती रहती है। पूर्व के पुण्य-पाप का उदय तो धर्मी को भी आता है - ऐसा जानकर हे भव्यजीवो ! पुण्योदय में तुम मोहित मत होना और पाप के उदय में धर्म को नहीं छोड़ना ।
संसार की (पुण्य-पाप की ) ममता छोड़कर, चैतन्यभाव द्वारा सदा ही जिनधर्म की आराधना में चित्त को जोड़ो।
लक्ष्मण की विजय और खरदूषण का मरण -
यहाँ - खरदूषण की विशाल सेना के सामने लक्ष्मण अकेले ही लड़ रहे हैं, इतने में वहाँ से विराधित नाम का विद्याधर राजा निकला, उसने स्वयं की सेना सहित लक्ष्मण की मदद की । खरदूषण, स्वयं के पुत्र को मारने वाले लक्ष्मण को मारने के लिए तलवार लेकर दौड़ा, परन्तु लक्ष्मण ने सूर्यहास तलवार द्वारा उसका मस्तक छेद दिया । अरे, पुत्र ने बारह वर्ष के तप द्वारा जो तलवार साधी, उसी तलवार द्वारा ही उसका और उसके पिता का घात हुआ !
अरे, पुण्य-पाप के खेल संसार में विचित्र हैं।
इसप्रकार लक्ष्मण ने खरदूषण को मार गिराया और उसकी पाताल लंका का राज्य विराधित को सौंपा और स्वयं विद्याधरों सहित तुरन्त राम के पास आये। आकर देखते हैं तो राम जमीन पर पड़े हैं और सीता कहीं दिखाई हीं नहीं देती, जटायु भी वहीं जमीन पर पड़ा है।