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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/३३ दशरथ राजा और चार रानियों द्वारा अनुक्रम से राम-लक्ष्मणभरत-शत्रुघ्न -ये चार पुत्र हुए। राम का असली नाम ‘पद्म' था, इसलिए उनकी कथा पद्मपुराण अथवा पद्मचरित्र कहलाती है।
अष्टाह्निका पर्व आया....और दशरथ राजा ने आठ दिन के उपवास पूर्वक जिनदेव की महापूजा की। पूरी अयोध्या नगरी वीतरागी पूजन के महान हर्ष से खिल उठी। इतने में ही सरयू नदी के किनारे अनेक मुनिवरों का संघ आया। पर्वत पर, गुफा में, वन में, नदी किनारे मुनिजन ध्यान एवं स्वाध्याय में लीन थे। अहो, धर्मकाल ! अनेक मुनिराज तो विशेष लब्धिवान और अवधि-मन:पर्यय ज्ञानी थे। राजा दशरथ उन सब मुनिवरों के दर्शन करके उनका उपदेश सुनने लगे।
दूसरी तरफ विद्याधर का पुत्र जो सीता का सगा सहोदर भाई भामण्डल था; परन्तु उसे पता नहीं था कि सीता मेरी बहन है। वह सीता का अद्भुत रूप देखकर मोहित हो गया और सीता का हरण करने के लिए बड़ी भारी लश्कर लेकर अयोध्या को चला; परन्तु बीच में स्वयं के पूर्वभव की नगरी देखते ही उसे जातिस्मरण हो आया तथा सीता और मैं स्वयं एक ही माता के उदर से जन्मे हैं, हम भाई-बहन ही हैं - ऐसा उसे ख्याल आया, इससे उसे बहुत पश्चाताप हुआ। अरे रे ! सीता तो मेरी सगी बहन है, अज्ञानता से मैंने दुष्ट परिणाम किये; सीता ने जब यह जाना कि ये भामण्डल मेरा भाई है, तब वह भी बहुत प्रसन्न हुई। भामण्डल के पालक पिता विद्याधर राजा ने जब भामण्डल के जातिस्मरण की बात सुनी, तब उन्हें भी वैराग्य हुआ और भामण्डल को राज्य सौंपकर उन्होंने स्वयं दीक्षा ले ली। दशरथ वैराग्य
इधर अयोध्या में दशरथ महाराज भी मुनिराज के श्रीमुख से अपने पूर्वभवों का वर्णन सुनकर संसार से विरक्त हुए। राम को राज्य सौंपकर