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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/३२ मशगूल हैं। पाठको! जबतक वे माँ-बेटे खूब मन भरकर बातें करते हैं, तबतक उतने समय हम तुम्हें अयोध्या ले चलते हैं।) हनुमान कथा के अन्तर्गत प्रकरण प्राप्त रामकथा
अपने इस भरतक्षेत्र की अयोध्यानगरी में, इक्ष्वाकुवंश में भगवान ऋषभदेव से लेकर मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर पर्यंत के काल में असंख्यात राजा मोक्षगामी हुए हैं, उसी क्रम में रघु राजा हुए हैं। उन रघु राजा के पौत्र दशरथ अयोध्या के राजा बने । राजा दशरथ सम्यग्दर्शन से सुशोभित थे, उन्होंने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाये हुए अद्भुत जिनालयों का जीर्णोद्धार कराके उन्हें पुन: नवीन जैसे करा दिये थे। दशरथ राजा की कौशल्या, सुमित्रा, केकई और सुप्रभा – ये चार रानियाँ थीं। उनमें से केकई ने स्वयंवर के समय राजाओं के साथ युद्ध में दशरथ की मदद की थी - इस कारण राजा दशरथ ने प्रसन्न होकर उसे एक वरदान माँगने को कहा था और उसे रानी केकई ने बाकी रखा था।
(पाठकगण ! ये केकई जैनधर्म की जानकार, सम्यग्दर्शन की धारी और व्रतों का पालन करनेवाली थी, शास्त्रविद्या और शस्त्रविद्या दोनों में निपुण थी; वह दुष्ट या दुर्गुणी नहीं थी, परन्तु वह तो सज्जन-धर्मात्माश्राविका थी। वचन बाकी रखने में उसका कोई दुष्ट हेतु नहीं था, उसका उसे विवेक था कि बिना प्रयोजन के क्या माँगे।।
अरेरे, जगत धर्मात्मा को पहचान नहीं सकते, अपने राग-द्वेष के अनुसार धर्मात्मा में भी मिथ्या दोषारोपण करके विपरीत रूप में देखते हैं। धर्मात्मा के सच्चे गुणों को और महान चरित्र को पहचानें तो जीव का कल्याण हो जाये । जैनधर्म के पुराण धर्मात्मा के गुणों की सच्ची पहचान कराते हैं कि कैसे-कैसे गंभीर प्रसंगों में भी धर्मात्मा अपने उत्तम गुणों की आराधना टिकाये रखते हैं - यह बतलाकर जीवों को आराधना का उत्साह जगाते हैं; इसलिए जैन पुराणों का पठन-श्रवण मुमुक्षु जीवों को उपयोगी जानकर करना चाहिये।)