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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/३४ दीक्षा लेने को तैयार हुए। अंतःपुर में ये बात सुनते ही सभी को राजा दशरथ के वियोग का दुख सताने लगा; परन्तु पुत्र भरत तो यह सुनकर खुश हुआ और उसने विचारा कि पिताजी के सिर पर तो राज्य का भार है, इसलिए उन्हें सभी से पूछना पड़ रहा है और राज्य का प्रबंध करना पड़ रहा है, परन्तु मुझे न तो किसी से पूछना है और न ही कुछ करना है। मैं भी पिताजी के साथ ही दीक्षा लेकर संयम धारण करूँगा । भरत के इस विचार को विचक्षण बुद्धि भरत की माता केकई को समझते देर न लगी और वे पति और पुत्र के एकसाथ वियोग की कल्पना मात्र से आन्दोलित हो गईं और उनने कुछ भी पूर्वापर विचार किये बिना भरत को रोकने हेतु राजा दशरथ से भरत को राज्य देने की बात कह डाली । राजा दशरथ ने भी उन्हें इस बात के लिए हाँ कह दी। दशरथ और कई ये बात कर ही रहे थे कि वहाँ वैरागी भरत राजमहल से बाहर निकलकर वन की ओर जाने लगे। यह देखकर राजा दशरथ ने उसे रोककर राज्य संभालने की देते आज्ञा प्रेम से समझाया - तभी रामचन्द्रजी भी वहाँ आ गये और भरत को समझाते हुए कहने लगे – “पिता के वचनों का उल्लंघन होने से कुल की अपकीर्ति और माता कई भी तेरे विरह से महान दुःखी होगी। इसलिए पुत्र का कर्त्तव्य है कि माता-पिता को दुःखी नहीं होने देना चाहिये। अभी तेरी उम्र भी कम है, थोड़े समय तू राज्य संभाल ले, फिर हम साथ में ही दीक्षा लेंगे तथा बड़े भाई के हाजिर होते हुए छोटे भाई को राज्य सौंपा - ऐसा भी जगत न कहे, इसलिए मैं तो दूर-दूर वन में या दक्षिण के कोई दूर क्षेत्र में जाकर रहूँगा । तू निश्चिंत होकर राज्य संभाल । " - इसप्रकार राम ने भी भरत का हाथ पकड़ कर पिता की आज्ञा मानने का वास्ता देकर उन्हें राज्य करने पर विवश कर दिया और स्वयं माता-पिता को वंदन करके अयोध्या छोड़कर वन प्रवास के लिए निकल पड़े। सीता और लक्ष्मण भी साथ में ही चल पड़े। दशरथ को मूर्छा आ गई । नगरजनों ने तथा चारों माताओं ने राम को वन जाने से बहुत रोका, परन्तु राम नहीं रुके ।
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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