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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/३१
दक्षिण दिशा के तीन खंडों का जो अधिपति है, जिसके यहाँ दैवी सुदर्शन चक्र प्रगट हुआ, सभी राजाओं ने मिलकर अर्द्धचक्रवर्ती के रूप में जिसका राज्याभिषेक किया; वह राजा रावण मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के शासनकाल में आठवाँ प्रतिवासुदेव हुआ था; राक्षसवंशी विद्याधर राजाओं के कुल का वह तिलक था, वह माँसाहारी नहीं था, वह तो शुद्ध भोजन करने वाला जिनभक्त था । उसकी लंकानगरी की शोभा अद्भुत थी तथा वहाँ के राजमंदिर में शांतिनाथ भगवान का अति मनोहर एक जिनालय था; वहाँ जाकर रावण जिनेन्द्र भक्ति करता और विद्या भी साधता था । लंका प्रवेश के बाद रामचन्द्रजी ने भी उस जिनमंदिर में शांतिनाथ भगवान की अद्भुत भक्ति की थी। हनुमान भी कोई बंदर नहीं थे, परन्तु आठवें कामदेव थे तथा चरमशरीरी महात्मा थे । शास्त्रकार कहते हैं
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"अहो भव्यजीवो ! तुम जिनशास्त्र के अनुसार भगवान रामचंद्र, भगवान हनुमान, इन्द्रजीत, कुंभकरण वगैरह के वीतरागी स्वरूप को पहिचानो, जिससे तुम्हें उन मोक्षगामी महान सत्पुरुषों के अवर्णनाद का दोष न लगे तथा रत्नत्रयमार्ग का उत्साह जागृत हो । जिन - शास्त्र तो रत्नों के भंडार हैं । इन जिन - शास्त्रों के अनुसार वस्तु के सत्य स्वरूप को जानते ही मिथ्यावादी पाप धुल जाते हैं, और अपूर्व हितकारी भाव प्रगट होते ' हैं ।”)
( बंधुओ, अपनी इस कथा का सम्बन्ध हनुमान के जीवन-चरित्र सम्बन्धित हैं। हनुमान राजा रावण को लड़ाई में मदद देकर वापिस नुरुह द्वीप आये। आगे के प्रकरण में हनुमान सीता को खोजने में रामचन्द्रजी की मदद करेंगे। इतना ही नहीं, रावण के साथ हुए युद्ध में लक्ष्मण को बचाने में भी हनुमान बहुत मदद करेंगे, परन्तु उसके पहले अपने को रामचन्द्र और सीता सम्बन्धी थोड़ा इतिहास जान लेना भी जरूरी है। अभी तो हनुमान अपनी माता अंजना के पास वरुण के साथ युद्ध की वार्ता और बीच वन में आये अपने जन्मधाम की वार्ता करने में