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________________ -५/३० जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ५ मुनिराज ने मेरी माता को धर्मोपदेश दिया था, तथा पूर्वभव भी कहे थे । अहा, यहीं मुनिसुव्रतनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान है। मेरी माँ उनके दर्शन-पूजन करते ही सभी दुःख भूल जाती थी, यहाँ इसी गुफा में मेरा जन्म हुआ था । इसप्रकार विचार कर अपने जन्मधाम (गुफा) में बैठकर हनुमान चैतन्य का ध्यान करने लगे । अहो, कुछ समय पहले लड़ाई और कुछ समय बाद ही निर्विकल्प शांति का ध्यान ! वाह ! साधक धर्मात्मा की परिणति कैसी विचित्र है !! कैसी अद्भुतता भरी है उसके चैतन्यभाव में !!! अन्य भावों के समय वह ' उससे न्यारा ही न्यारा वर्तता है । वाह साधक ! धन्य है आपका जीवन ! आपका जीवन अन्य जीवों को भी भेदज्ञान और आराधना का ही बोध दे रहा है। अहो जीवो ! हनुमान जैसे धर्मसाधक जीवों के जीवन में उदयभाव के अनेक प्रसंगों को देखते हुए भी उनकी उदयातीत चैतन्यदशा को भूलना मत । औदयिक भावों से जो भिन्न है, औदयिक भाव से भी जो अधिक बलवान है - ऐसे सम्यक्त्वादि चैतन्यभावों से सुशोभित साधक जीवों के जीवन को पहचान कर उनका सन्मान करना । अकेले औदयिकभावों को ही देखने मत लग जाना । मार्ग में किष्किंधापुर नगरी आई, वहाँ का विद्याधर राजा सुग्रीव बड़ा ही पराक्रमी था, उसकी पुत्री पद्मरागा हनुमान पर मोहित हो गई । हनुमान का चित्त भी उसका चित्र देखकर आसक्त हो गया । इस कारण दोनों की शादी हुई। उसके बाद हनुमान हनुमत द्वीप पहुँचे - ऐसे शूरवीर प्रतापक्त एवं धर्मात्मा पुत्र को देखते ही माता अंजना तथा पिता पवनकुमार आदि सभी बहुत प्रसन्न हुए तथा विजयोत्सव मनाया। ( लंकानगरी का महाराजा रावण, हजारों राजा जिसकी सेवा करते हैं, १८,००० जिसकी रानियाँ हैं, भरत क्षेत्र के विजयार्द्ध पर्वत की
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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