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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ५ मुनिराज ने मेरी माता को धर्मोपदेश दिया था, तथा पूर्वभव भी कहे थे । अहा, यहीं मुनिसुव्रतनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान है। मेरी माँ उनके दर्शन-पूजन करते ही सभी दुःख भूल जाती थी, यहाँ इसी गुफा में मेरा जन्म हुआ था । इसप्रकार विचार कर अपने जन्मधाम (गुफा) में बैठकर हनुमान चैतन्य का ध्यान करने लगे ।
अहो, कुछ समय पहले लड़ाई और कुछ समय बाद ही निर्विकल्प शांति का ध्यान ! वाह ! साधक धर्मात्मा की परिणति कैसी विचित्र है !! कैसी अद्भुतता भरी है उसके चैतन्यभाव में !!! अन्य भावों के समय वह ' उससे न्यारा ही न्यारा वर्तता है । वाह साधक ! धन्य है आपका जीवन ! आपका जीवन अन्य जीवों को भी भेदज्ञान और आराधना का ही बोध दे रहा है।
अहो जीवो ! हनुमान जैसे धर्मसाधक जीवों के जीवन में उदयभाव के अनेक प्रसंगों को देखते हुए भी उनकी उदयातीत चैतन्यदशा को भूलना मत । औदयिक भावों से जो भिन्न है, औदयिक भाव से भी जो अधिक बलवान है - ऐसे सम्यक्त्वादि चैतन्यभावों से सुशोभित साधक जीवों के जीवन को पहचान कर उनका सन्मान करना । अकेले औदयिकभावों को ही देखने मत लग जाना ।
मार्ग में किष्किंधापुर नगरी आई, वहाँ का विद्याधर राजा सुग्रीव बड़ा ही पराक्रमी था, उसकी पुत्री पद्मरागा हनुमान पर मोहित हो गई । हनुमान का चित्त भी उसका चित्र देखकर आसक्त हो गया । इस कारण दोनों की शादी हुई। उसके बाद हनुमान हनुमत द्वीप पहुँचे - ऐसे शूरवीर प्रतापक्त एवं धर्मात्मा पुत्र को देखते ही माता अंजना तथा पिता पवनकुमार आदि सभी बहुत प्रसन्न हुए तथा विजयोत्सव मनाया।
( लंकानगरी का महाराजा रावण, हजारों राजा जिसकी सेवा करते हैं, १८,००० जिसकी रानियाँ हैं, भरत क्षेत्र के विजयार्द्ध पर्वत की