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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२८ (यद्यपि रावण के पास दैवी आयुध होने से उनके द्वारा वह वरुण राजा को आसानी से जीत सकता था, परंतु उसने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि वरुण राजा को दैवी शस्त्रों के बिना ही जीतना है | ) अब पुन: रावण ने वरुण राजा के साथ संग्राम शुरू किया। वरुण राजा की पुंडरीक नगरी लवण समुद्र के बीच में थी; हनुमान ने समुद्र को लांघकर उसमें प्रवेश किया । भयानक लड़ाई शुरू हुई। वरुण के पुत्रों ने रावण को चारों ओर से घेर लिया। एक बार विद्या के बल से कैलाश पर्वत को भी हिला देने वाला राजा रावण शत्रुओं से घिर गया - यह देखकर हनुमान तुरन्त ही वहाँ दौड़कर आये और उन राजपुत्रों पर झपट पड़े। जैसे हवा के थपेड़ों से पत्ते काँपने लगते हैं, वैसे ही पवनपुत्र के हमले से शत्रुओं के हृदय काँप उठे। जैसे जिनमार्ग के अनेकांत के सामने एकांत रूप मिथ्यामत टिक नहीं सकते, वैसे ही हनुमानजी के सामने वरुण की सेना टिक नहीं सकी । हनुमान ने विद्या के बल से वरुण के सौ के सौ पुत्रों को पकड़ कर बाँध लिया। दूसरी ओर रावण ने भी वरुण राजा को पकड़ कर बंदी बना लिया | इस तरह रावण की जीत होते ही उसके लश्कर ने वरुण राजा की पुंडरीक नगरी में प्रवेश किया तथा लश्कर के सैनिक उस नगरी को लूटने का विचार करने लगे, परन्तु नीतिवान राजा रावण ने उनको रोकते हुए कहा - "प्रजा को लूटना - ये राजा का धर्म नहीं है; अपना वैर तो राजा वरुण के साथ था, प्रजा के साथ नहीं; प्रजा का क्या अपराध ? प्रजा को लूटना बड़ा अन्याय है - ऐसा दुराचार अपने को शोभा नहीं देता, इसलिए प्रजा की रक्षा कर उसे निर्भय बनाओ तथा वरुण राजा को छोड़कर उसका राज्य उसे सौंप दो" .. रावण का ऐसा उदार व्यवहार देखकर सभी उसकी प्रशंसा करने लगे ।
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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