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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२७ इसप्रकार पंच परमेष्ठी भगवन्तों की पूजन करने के बाद हनुमान ने माता के पास जाकर विदाई माँगी -
“हे माँ ! मैं युद्ध में जीतने जा रहा हूँ, तुम मुझे आशीर्वाद दो।"
माता अंजना तो आश्चर्य में पड़ गई-ऐसे शूरवीर पुत्र को देखकर उसके हृदय में स्नेह उमड़ आया... पुत्र को युद्ध के लिए विदाई देते समय उसकी आँखों में आँसू भर आये; परंतु पुत्र की शूरवीरता का उसे विश्वास था, इसलिए आशीर्वाद पूर्वक विदाई दी -
“बेटा ! जा, जिसप्रकार वीतरागी मुनिराज शुद्धोपयोग द्वारा मोह को जीत लेते हैं, उसीप्रकार तू भी शत्रु को जीतकर जल्दी वापिस आना।"
माता के चरणों में नमस्कार करके हनुमान ने विदाई लेकर, लश्कर सहित लंका नगरी की तरफ प्रस्थान किया। रास्ते में अनेक शुभ शगुन
हुये।
जब वीर हनुमान रावण के पास जा पहुँचे; तब दिव्यरूपधारी हनुमान को देखते ही राक्षसवंशी-विद्याधर राजागण विस्मित होकर बातें करने लगे -
"ये हनुमानजी महान भव्योत्तम हैं, इन्होंने बाल्यावस्था में ही पर्वत की शिला चूर-चूर कर डाली थी, ये तो वज्र-अंगी हैं। महाराजा रावण ने भी प्रसन्नता से उसका सन्मान किया तथा स्नेहपूर्वक हृदय से लगाकर उसे अपने पास बैठाया; उसका रूप देकर हर्षित हुए और कहा कि पहले इनके पिताजी पवनकुमार ने हमारी मदद की थी और अब ऐसे वीर तथा गुणवान हनुमान को भेजकर हमारे ऊपर बहुत ही स्नेह प्रदर्शित किया है। इसके समान बलवान योद्धा दूसरा कोई नहीं, इसलिए अब रणसंग्राम में वरुण राजा से हमारी जीत निश्चित है।"