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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२६ गतियों में अनादिकाल से भ्रमण करते हुए जीवों ने मोक्षगति कभी नहीं देखी, फिर भी उस अभूतपूर्व ऐसे मोक्षपद को क्या मुमुक्षुजीव आत्मउद्यम द्वारा नहीं साधते ? पहले कभी नहीं देखी हुई मोक्षपदवी को भी मुमुक्षुजीव पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त कर ही लेते हैं - इसी प्रकार पहले कभी नहीं देखे हुए, आत्मतत्त्व को अपूर्व सम्यग्ज्ञान द्वारा भव्य जीव देख ही लेते हैं; तो फिर पहले नहीं देखा- ऐसे रणक्षेत्र में जाकर शत्रु को जीत लेना कौनसी बड़ी बात है ? इसीलिए हे पिताजी ! मुझे ही युद्ध में जाने दो, मैं वरुण राजा को जीत लूँगा। जिसप्रकार शेर का बच्चा बड़े हाथी के सामने जाने से नहीं डरता, उसी प्रकार मैं भी निर्भय होकर वरुण राजा के सामने जाने से नहीं डरता, अवश्य ही मैं उसे जीत लूंगा।" हनुमान की वीरताभरी बातें सुनकर सभी प्रसन्न हुए। वाह, देखो मोक्षगामी जीव की भणकार ! युद्ध की बात से भी उसने मोक्ष का दृष्टांत प्रस्तुत किया है। यद्यपि अनादि अज्ञानदशा में जीव ने कभी आत्मा को जाना नहीं था, न सिद्धपद का स्वाद ही चखा था, फिर भी जब वह मुमुक्षु हुआ और मोक्ष को साधने तैयार हुआ; तब आत्मस्वभाव में से ही सम्यग्ज्ञान प्रगट करता हुआ, चैतन्य की स्वाभाविक वीरता द्वारा आत्मा को जान लेता है और अनादि के मोह को जीतकर सिद्धपद को साध लेता है। लोक में कहावत है कि – 'रणे चढ़ो राजपूत छिपे नहीं' इसप्रकार हनुमान का अति आग्रह देखकर उसे कोई रोक नहीं सका, अन्त में सभी ने उसे युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी। - प्रसन्नचित्त से विदाई लेकर हनुमानजी जिन-मंदिर में गये; वहाँ बहुत ही शांतचित्त से अष्ट मंगल द्रव्यों द्वारा अरहंत देव की पूजा की, सिद्धों का ध्यान किया और भावना भायी - "अहो भगवंतो ! आप समान में भी मोहशत्रु को जीतकर आनन्दमय मोक्षपद को कब साधूंगा।"
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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