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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२५ रणशूर हनुमान....रावण की मदद में
प्रतिसूर्य राजा का राजदरबार भरा हुआ है। श्री पवनकुमार, हनुमान आदि भी राजसभा में शोभायमान हो रहे हैं, तेजस्वी हनुमान को देखकर सभी मुग्ध हो रहे हैं, इतने में रावण के एक राजदूत ने राजसभा में प्रवेश किया और प्रतिसूर्य राजा से रावण का संदेश देते हुए कहने लगा -
___ “हे महाराज ! मैं लंकाधिपति रावण महाराज का संदेश लेकर आया हूँ; पहले जिस वरुण राजा को पवनकुमार ने जीत लिया था, वह वरुण राजा अब फिर से महाराजा रावण की आज्ञा के विरुद्ध आचरण कर रहा है; इसीलिए उसके साथ युद्ध में मदद करने के लिए आपको तथा पवनकुमार को महाराजा रावण ने पुन: आमंत्रित किया है।"
रावण की आज्ञा शिरोधार्य करके राजा प्रतिसूर्य तथा पवनकुमार युद्ध में जाने की तैयारी करने लगे और हनुमत द्वीप का राज्यभार हनुमान को सौंपने का विचार कर उसके राज्याभिषेक की तैयारी करने लगे। यह देखकर वीर हनुमान ने कहा -
“पिताजी ! आप दोनों वृद्ध (बुजुर्ग) हो, मेरे होते हुए आपका युद्ध में जाना उचित नहीं। मैं ही युद्ध में जाऊँगा और वरुण राजा को जीत कर आऊँगा।"
यह सुनकर पवनकुमार बोले -
“बेटा हनुमान ! तुम शूरवीर हो, ये सत्य है; परंतु अभी तुम बालक हो, तुम्हारी उम्र छोटी है, तुमने रणभूमि कभी देखी नहीं, दुश्मन राजा बड़ा बलवान है, उसके पास बड़ी सेना है, तथा उसका किला बहुत मजबूत है; इसलिए तू युद्ध में जाने का आग्रह छोड़ दे, हम ही जायेंगे।"
तब हनुमान कहते हैं – “भले मैं छोटा हूँ, परन्तु शूरवीर हूँ; रणक्षेत्र पहले कभी नहीं देखा – इससे क्या ? ऐसे तो हे पिताजी ! चारों