________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२४
हनुमान ने अत्यंत उल्लास से कहा – “अहो माता ! आत्मा का अद्भुत आनन्दमय स्वरूप भगवान बताते थे । वीतराग रस से भरे चैतन्यतत्त्व की कोई गंभीर महिमा भगवान बतलाते थे, उसे सुनते ही भव्यजीव शांतरस के समुद्र में सराबोर हो जाते थे । माता, वहाँ तो बहुत
मुनिराज थे, वे तो आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द में झूलते थे । अहो, ऐसे आनन्द में झूलते मुनिवरों को देखकर मुझे उनके साथ रहने का मन हुआ, परन्तु.... (इतना कहकर हनुमान रुक गए ) "
अंजना ने पूछा "क्यों बेटा हनुमान ! तू बोलते-बोलते रुक क्यों गया ?"
"क्या कहती हो माँ ! मुझे मुनिदशा की बहुत भावना हुई, परन्तु हे माता मैं तेरे स्नेह-बंधन को तोड़ नहीं सका; तुम्हारे प्रति परम प्रेम के कारण मैं मुनि नहीं हो सका । माता, सारे संसार का मोह मैं एक क्षण में छोड़ने को समर्थ हूँ, परन्तु तेरे प्रति उत्पन्न मोह नहीं छूटता है, इसलिए महाव्रत के बदले मैंने मात्र अणुव्रत ही धारण किये।”
—
"अहो पुत्र ! तू अणुव्रतधारी श्रावक हो गया ये महा आनन्द की बात है। तेरी उत्तम भावनाओं को देखकर मुझे हर्ष होता है। मैं ऐसे महान धर्मात्मा और चरमशरीरी मोक्षगामी पुत्र की माता हूँ - इसका मुझे . गौरव है। अरे, वन में जन्मा हुआ मेरा ये पुत्र अंत में तो वनवासी ही होगा और आत्मा की परमात्मदशा को साधेगा ।"
माता-पुत्र बहुत बार ऐसी आनन्दपूर्वक धर्मचर्चा करते थे। ऐसे धर्मात्मा जीवों को अपने आंगन में देखकर राजा प्रतिसूर्य (अंजना के मामा) भी खुश होते थे.... कि वाह ! ऐसे धर्मी जीवों की सेवा का अनायास ही लाभ मिला यह हमारा धन्य भाग्य है ! यथासमय युद्ध समाप्त होने पर श्री पवनजय भी यहाँ आकर राजा प्रतिसूर्य का आतिथ्य एवं अंजना और पुत्र हनुमान को पाकर आनन्दित हो रहे थे ।
-