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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२० दिव्यध्वनि में प्रभु ने कहा – “अहो जीवो ! संसार की चारों गतियों के शुभाशुभभाव दुःख रूप हैं; आत्मा की मोक्षदशा ही परम सुख रूप है – ऐसा जानकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा उसकी साधना करो। वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों राग रहित हैं और आनन्दरूप हैं।” यहाँ भव्यजीव एकदम शांतचित्त से भगवान का उपदेश सुन रहे हैं। __ भगवान की दिव्यध्वनि में आया- “आत्मा के चैतन्यसुख के अनुभव बिना अज्ञानी जीव पुण्य-पाप में मूर्छित हो रहा है और बाह्य वैभव की तृष्णा की दाह से दुःखी हो रहा है। अरे जीवो ! विषयों की लालसा छोड़कर तुम अपनी आत्मशक्ति को जानो, विषयातीत चैतन्य का महान सुख तुम्हारे में ही भरा है। __ आत्मा को भूलकर जीव विषयों के वशीभूत होकर महानिंद्य पापकर्मों के फलस्वरूप नरकादि गतियों के महादुःख को भोगते हैं। अरे, महादुर्लभ मनुष्यपना पाकर के भी तू आत्महित को नहीं जानता तथा तीव्र हिंसा-झूठ-चोरी आदि पाप करके नरक में जाता है। माँस-मच्छी-अंडाशराब आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करनेवाला जीव नरक में जाता है, वहाँ उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं - ऐसे महादुःखों से आत्मा को छुड़ाने के लिए, हे जीवो ! तुम अपने आत्मा को पहिचान कर, श्रद्धा कर एवं अनुभव करके शुद्धोपयोग प्रगट करो, शुद्धोपयोग रूप आत्मिक धर्म का फल ही मोक्ष है। जीव कभी पुण्य करके देवगति में उपजा, वहाँ भी अज्ञान से बाह्य वैभव में ही मूर्छित रहा, उसने आत्मा के सच्चे सुख को जाना नहीं। अरे, अभी यह महादुर्लभ अवसर धर्म सेवन करने के लिए मिला है; इसलिए हे जीव! तू अपना हित कर ले, ये संसार सागर में खोया हुआ मनुष्य-रत्न फिर हाथ आना बड़ा दुर्लभ है। इसलिए जैन-सिद्धांत के अनुसार तत्त्वज्ञान पूर्वक मुनिधर्म या श्रावकधर्म का पालन करके आत्मा का हित करो।"
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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