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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२१ इसप्रकार श्री अनंतवीर्य केवली प्रभु के श्रीमुख से हनुमान एकाग्रचित से उपदेश सुनकर परम वैराग्य में तन्मय हो गये। राजा रावण आदि भी भक्ति से उपदेश सुन रहे हैं - ऐसा सुन्दर वीतरागी धर्म का उपदेश सुनकर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च - सभी आनंदित हुए; कितने ही जीवों ने साक्षात मोक्षामार्गरूप मुनिपद धारण किया। कितनों ने श्रावकव्रत अंगीकार कर लिये, कितने ही जीव कल्याणकारी अपूर्व सम्यक्त्व धर्म को प्राप्त हुए। - हनुमान, विभीषण आदि ने भी उत्तम भाव से श्रावकव्रत धारण किये। हनुमान की तो यद्यपि मुनि होने की भावना थी, परन्तु माता अंजना के प्रति परम स्नेह के कारण वह मुनि नहीं बन सके। अरे, संसार का स्नेहबंधन तो ऐसा ही है। भगवान के उपदेश से बहुत से जीवों में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र खिल उठता है। जैसे वर्षा होने से बगीचा खिल जाता है, वैसे ही जिनवाणी की अमृतवर्षा से धर्मात्मा जीवों का आनन्द बगीचा श्रावकधर्म तथा मुनिधर्म रूप फूलों से खिल उठता है। इसी प्रसंग पर एक मुनिराज ने रावण से कहा - . “हे भद्र ! तुम भी कुछ नियम ले लो। भगवान का यह समवशरण तो धर्म का रत्नद्वीप समान है; इस रत्नद्वीप में आकर तुम भी कुछ नियमरूपी रत्न ले लो, महापुरुषों के लिए त्याग कोई खेद का कारण नहीं।" यह सुनकर जैसे रत्नद्वीप में प्रवेश करने वाले किसी मनुष्य का मन घूमने लगता है कि “मैं कौनसा रत्न लेऊँ ? ये लेऊँ कि ये लेऊँ ?" वैसे ही राजा रावण का चित्त घूमने लगा – “मैं कौनसा नियम लेऊँ ?" भोगों में अत्यंत आसक्त ऐसे रावण को मन में चिंता होने लगी“मेरा खान-पान तो सहज ही पवित्र है, माँसादि मलिन वस्तुओं
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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