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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/१९ विराजमान अनंत चतुष्टयवंत अरहंतदेव को देखते ही हनुमान को कोई आश्चर्यकारी प्रसन्नता हुई। उसने इस जीवन में प्रथम बार ही वीतराग देव को साक्षात् देखा था। जिसप्रकार सम्यग्दर्शन के समय प्रथम बार अपूर्व आत्मदर्शन होते ही भव्यजीवों के आत्मप्रदेश परम-आनन्द से खिल उठते हैं, उसी प्रकार हनुमान का हृदय भी प्रभु को देखते ही आनन्द से खिल उठा। ... अहा, प्रभु की सौम्य मुद्रा ! पर कैसी परम शांति और वीतरागता छा रही है - यह देख-देखकर हनुमान का रोम-रोम हर्ष से उल्लसित हो गया। वह प्रभु की सर्वज्ञता में से झरता हुआ अतीन्द्रिय आनन्द रस, श्रद्धा के प्याले में भर-भर कर पीने लगा। परम भक्ति से उसकी हृदय-वीणा झनझना उठी।
अत्यंत आत्मोत्पन्न विषयातीत अनूप अनंत जो। विच्छेदहीन है सुख अहो ! शुद्धोपयोग प्रसिद्ध का॥
- (प्रवचनसार गाथा ५० का हिन्दी पद्यानुवाद) अहो प्रभो! आप अनुपम अतीन्द्रिय आत्मा के सुख को शुद्धोपयोग के प्रसाद से अनुभव कर रहे हो! हमारा भी यही मनोरथ है कि ऐसा उत्कृष्ट अनुपम सुख हमें भी अनुभव में आवे।
ऐसी प्रसन्नता पूर्वक स्तुति करके हनुमान केवली प्रभु की सभा में मनुष्यों के कोठे में जाकर बैठे। महाराजा रावण, इन्द्रजीत, कुंभकरण, विभीषण वगैरह भी प्रभु के केवलज्ञान-उत्सव में आये तथा भक्ति भाव से प्रभु की वंदना करके धर्मसभा में बैठे। प्रभु का उपदेश सुनने के लिए सभी आतुर हैं कि अब वहाँ चारों ओर आनंद फैलाती हुई दिव्यध्वनि छूटी; भव्यजीव हर्ष-विभोर हो गये। जैसे तीव्र गर्मी में मेघवर्षा होते ही जीवों को शांति हो जाती है, वैसे ही संसार क्लेश से संतप्त जीवों का चित्त दिव्यध्वनि की वर्षा से अत्यंत शांत हो गया।