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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/१३ हनुमान का जन्म
स्वर्ग से निकलकर वह धर्मात्मा जीव अंजना की रत्न-कुक्षी से वन-जंगल में हनुमान के रूप में अवतरित हुआ।
जैसे पूर्व दिशा सूर्य को प्रगट करती है, उसी तरह अंजना ने सूर्यसम तेजस्वी हनुमान को जन्म दिया, उसका जन्म होते ही गुफा में व्याप्त अंधकार विलय हो गया और ऐसा लगता था, मानो वह गुफा ही स्वर्ण निर्मित हो।
यह उनका अंतिम भव था, वे कामदेव होने से अत्यंत रूपवान, महान पराक्रमी, वज्रशरीरधारी और चरम शरीरी थे, उन्होंने इसी भव में भव का अंत करके मोक्ष को प्राप्त किया था।
अंजना पुत्र को छाती से लगाकर दीनतापूर्ण स्वर में कहने लगी
"हे पुत्र इस गहन वन में तू उत्पन्न हुआ है, अत: मैं तेरा जन्मोत्सव किस प्रकार मनाऊँ ? यदि तेरा जन्म दादा या नाना के यहाँ होता तो निश्चित ही उत्साहपूर्ण वातावरण में तेरा जन्मोत्सव मनाया जाता। अहो! तेरे मुखरूपी चन्द्र को देखकर कौन आनंदित न होगा; किन्तु मैं भाग्यहीन सर्व वस्तुविहीन हूँ, अत: जन्मोत्सव का आयोजन करने में असमर्थ हूँ। हे पुत्र ! अभी तो मैं तुझे यही आशीर्वाद देती हूँ कि तू दीर्घायु हो, कारण कि जीवों को अन्य वस्तुओं की प्राप्ति की अपेक्षा दीर्घायु होना दुर्लभ है।
हे पुत्र ! यदि तू पास है तो मेरे पास सब कुछ है। इस महा गहन वन में भी मैं जीवित हूँ – यह भी तेरा ही पुण्य-प्रताप है।"
इसी बीच आकाश मार्ग से सूर्यसम तेजस्वी एक विमान आता हुआ दिखा, जिसे देख अंजना भयभीत हो शंकाशील हो गयी और जोरजोर से पुकारने लगी। अंजना की उक्त पुकार सुनकर विमान में विद्यमान विद्याधर को दया उत्पन्न हो गई, अत: उसने अपने विमान को गुफा द्वार के समीप उतार दिया और विनयपूर्वक अपनी स्त्री सहित गुफा में प्रवेश किया।