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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ५ - -५/१२ को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान दिया और अन्त समय में समाधि मरण पूर्वक देह का परित्याग कर देवगति को प्राप्त हुआ I स्वर्ग की आयु पूर्ण कर वह जम्बूद्वीप के मृगांकनगर में हरिचन्द्र राजा की प्रियंगुलक्ष्मी रानी के गर्भ से 'सिंहचन्द्र' नामक पुत्र हुआ । वहाँ भी संतों की सेवापूर्वक समाधिमरण ग्रहण कर स्वर्ग गया । वहाँ से आयु पूर्ण कर भरत क्षेत्र के विजयार्द्ध पर्वत पर अहनपुर नगर में सुकंठ राजा की कनकोदरी रानी के यहाँ सिंहवाहन नामक पुत्र हुआ, जो महागुणवान एवं रूपवान था । उसने बहुत वर्षों तक राज्य भी किया। तत्पश्चात् विमलनाथ स्वामी के समवशरण में आत्मज्ञान पूर्वक संसार से वैराग्य उत्पन्न होने पर सम्पूर्ण राज्य का भार अपने पुत्र लक्ष्मीवाहन को सौंपकर लक्ष्मी-तिलक मुनिराज के परम शिष्यत्व को अंगीकार कर लिया अर्थात् वीतराग देव कथित मुनिधर्म अंगीकर कर लिया और अनित्यादि द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिंतवन करके ज्ञान - चेतनारूप हो गया, उसने महान तप किया और निजस्वभाव में एकाग्रता के बल पर उस स्वभाव में ही स्थिरता की अभिवृद्धि का प्रयत्न करने लगा । तप के प्रभाव से उसे अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट हो गईं, उसके शरीर से स्पर्शित पवन भी जीवों के अनेक रोगों को हर लेती थी । अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न वे मुनीश्वर निर्जरा के हेतु बाईस प्रकार के परीषहों को सहन करते थे । इसप्रकार अपनी आयु पूर्ण कर वे मुनिराज ज्योतिष्चक्र का उल्लंघन कर लांतव नामक सप्तम स्वर्ग में महान ऋद्धि से सुसम्पन्न देव हुये । देवगति में वैक्रियक शरीर होता है, अतः मनवांछित रूप बनाकर इच्छित स्थानों पर गमन सहज ही होता था। साथ ही स्वर्ग का वैभव होने पर भी उस देव को तो मोक्षपद की ही भावना प्रवर्तती थी, अतः वह स्वर्ग सुख में 'जल तें भिन्न कमलवत्' निवास करता था अर्थात् इन्द्रियातीत चैतन्य सुख की आराधना उसने वहाँ चालू रखी थी।
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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