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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७३ को अनेकों वैभव के साथ जाते देखा, जिसकी पाँच कामी पुरुष सेवा कर रहे थे.... उसका ऐसा ठाट-बाट देखकर अज्ञान से उस सुकुमारीअर्जिका ने यह निदान बन्ध किया कि मुझे भी भविष्य में ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो। वहाँ से मरकर वह स्वर्ग में गई। सोमदत्त (अर्जुन) का जीव जो पूर्वभव में उसका पति था और स्वर्ग में गया था, उसकी वह देवी बनी। उस पर्याय को छोड़कर यहाँ द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई है। पूर्वकृत अशुभ निदान बन्ध के उदय के कारण वह सती (मात्र अर्जुन की पत्नि) होने पर भी “पंचभर्तारी" के नाम से जगत में विख्यात हुई है, परन्तु उसका चित्त वास्तव में संसार से उदास होकर धर्म के प्रति जागृत हुआ। इस प्रकार प्रभु श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर की सभा में अपने पूर्वभवों का वृतान्त सुनकर उन पाण्डवों और द्रौपदी का चित्त संसार से एकदम विरक्त हुआ और विशुद्ध परिणाम पूर्वक उन्होंने प्रभु के सन्मुख जिनदीक्षा धारण की। अहो ! युधिष्ठिर-भीम-अर्जुन-नकुल-सहदेव – ये पाँचों भाई जैन मुनि होकर आत्मध्यान में लीन हुए और पंचपरमेष्ठी पद को सुशोभित करने लगे। उन्हें देखकर सभी आश्चर्य को प्राप्त हुए.... स्वर्ग के देव भी आनंदपूर्वक उत्सव करने लगे। तभी द्रौपदी, माता कुन्ती और सुभद्रा ने भी राजमती-आर्यिका के पास जाकर दीक्षा ले ली। . उसके बाद विहार करते-करते वे पाण्डव मुनिराज सौराष्ट्र देश में आये.... नेमिनाथ प्रभु की कल्याणक भूमि गिरनार की यात्रा की.... तत्पश्चात् वैराग्य भूमि सहस्र आम्रवन में थोड़े दिन रहकर आत्मध्यान की उग्रता के द्वारा वीतरागता की वृद्धि की.... बाद में शत्रुजय सिद्धक्षेत्र पर आकर निष्कंप आत्मध्यान करने लगे.... अहो ! परमेष्ठी पद में झूलते वे पाँचों पाण्डव मुनिराज पंचपरमेष्ठी जैसे ही शोभित हो रहे थे।
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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