SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७४ शत्रुजय पर्वत पर घोर उपसर्ग के बीच पाँच पाण्डव मुनिवरों द्वारा भायी गई वैराग्य भावना (शत्रुजय पर्वत पर पाँच पाण्डव मुनिवर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव संसार से विमुख होकर आत्मस्वरूप में उपयोग को एकाग्र करके शुद्धोपयोगरूप आत्मध्यान कर रहे थे.... शत्रु-मित्र के प्रति उन्हें समभाव था, उसी समय दुर्योधन के दुष्ट भानजे ने उन्हें देखकर - इन लोगों ने ही मेरे मामा को मारा है- ऐसा विचार करके बैरबुद्धि से बदला लेने के लिए वह तैयार हुआ।) उस दुष्ट जीव ने भयंकर क्रोधपूर्वक लोहे के धधकते मुकुट आदि बनवाकर मुनिवरों के मस्तक पर पहनाकर उन पर अग्नि का घोर उपसर्ग किया.... . धधकते लोहे के मुकुटों से मुनिवरों के मस्तिष्क जलने लगे.... हाथ-पैर जलने लगे.... ऐसे घोर उपसर्ग के बीच भी निजस्वरूप से डिगे बिना उन्होंने बारह वैराग्य-भावना का चिंतन किया और युधिष्ठिर-भीम-अर्जुन - इन तीन मुनिवरों ने तो उसी समय निर्विकल्प शुद्धोपयोगपूर्वक क्षपकश्रेणी मांडकर केवलज्ञान प्रकट करके मोक्ष प्राप्त किया। शेष नकुल और सहदेव - इन दो मुनिवरों को अपने भाईयों संबंधी सहज विकल्प हो जाने से केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई, परन्तु वैराग्य भावना पूर्वक सर्वार्थसिद्धि नाम के सबसे ऊँचे देवलोक में गये.... वहाँ से निकलकर वे भी मोक्ष प्राप्त करेंगे। शत्रुजय सिद्धक्षेत्र पर उपसर्ग के समय पाण्डव मुनिवरों ने जिन उत्तम भावनाओं के द्वारा आत्मकल्याण किया था, उन भावनाओं की प्रत्येक मुमुक्षुजीव को भावना करनी चाहिये। पाण्डव-पुराण के अनुसार उन वैराग्य-भावनाओं को यहाँ दिया जा रहा है।) . प्रथम तो, अग्नि के द्वारा जलते शरीर को देखकर उन धीर-वीर पाण्डवों ने क्षमारूपी जल का सिंचन किया, पंच परमेष्ठी और धर्म के चिंतन के द्वारा वे आत्मसाधना में स्थिर हो गये। आत्मा में क्रोधाग्नि को प्रवेश नहीं होने दिया, जिससे वे जले नहीं। वे जानते थे कि यह अग्नि कभी भी हमारी आत्मा को नहीं जला सकती, क्योंकि आत्मा तो देह से भिन्न शुद्ध चैतन्य-स्वरूप अरूपी है। अग्नि इस मूर्तिक शरीर को भले ही जला दे, परन्तु उससे हमारा क्या नुकसान है ? "मैं तो ध्यान के द्वारा शांत चैतन्य में स्थिर रहूँगा।"
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy