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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/७२ करके स्वर्ग में जन्म लिया.... वहाँ से निकलकर यहाँ युधिष्ठिर-भीमअर्जुन के रूप में मनुष्य जन्म प्राप्त किया है।
उधर उन तीनों भाईयों की पत्नियों में से नागश्री को छोड़कर दोनों पत्नियों ने भी आर्यिका व्रत धारण किया और आत्मसाधना पूर्वक स्वर्ग में गईं.... वहाँ से निकलकर यहाँ सहदेव और नकुल हुए हैं।
नागश्री का जीव (जो अभी द्रौपदी है) मुनि की विराधना के दुष्ट परिणाम के कारण मरकर नरक गया। बाद में दृष्टिविष नामक भयंकर सर्प होकर पुन: नरक गया । बाद में भी बहुत काल तक उसने स्थावर के अनेक भव धारण किये और घोर दुख भोगे। बाद में पापकर्मों का अनुभाग कुछ क्षीण हुआ तो वह चंपापुरी में चाण्डाल कन्या हुई, तब मुनिराज के पास से जैनधर्म का स्वरूप सुनकर मद्य-माँस-मधु वगैरह का त्याग करके शुभभाव पूर्वक मरकर उसी चंपापुरी में ही एक सेठ के यहाँ “सुकुमारी" नामक कन्या हुई, परन्तु उसका शरीर कुरूप और दुर्गन्धी था, इस कारण उसका पति भी उससे दूर-दूर रहता था, अत: वह अपने दुर्भाग्य पर खेद करती थी -
__. “अरे...अरे ! मैंने पूर्वभव में धर्म का अनादर करके पाप बाँधा, इसीलिए मेरा अनादर हो रहा है।" इस प्रकार अपनी निंदा करके पश्चाताप तथा उपवास करती थी।
एक बार उसके आंगन में आर्यिका संघ आया, उनमें दो आर्यिका अत्यन्त सुकोमल और कम उम्र की थी.... उन्हें विवाह-मंडप में ही जाति-स्मरण ज्ञान होने से वैराग्य धारण करके दीक्षा ग्रहण कर ली थी। उनकी कथा सुनकर सुकुमारी (नागश्री अथवा द्रौपदी का जीव) का चित्त भी संसार से विरक्त हुआ.... तब उसने आत्मज्ञान (सम्यक्त्व) के बिना ही आर्यिकाव्रत धारण किया।
एक समय की बात है, जब उसने एकबार वसंतसेना नामक वेश्या