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________________ बैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४९ लगा, साथ ही उनका अत्यंत कोमल शरीर भी जलने लगा। फिर उस दुष्ट ने मार-मार कर उन मुनिराज के शरीर को कीलों से चलनी के समान कर डाला। घोर उपसर्ग हुआ। फिर भी वे तो घोर पराक्रमी वीर गजस्वामी मुनिराज मानो शांति के पहाड़ हों ध्यान से डिगे ही नहीं। बाहर में अग्नि से माथा जल रहा था और अंदर में ध्यानाग्नि से कर्म जल रहे थे। छिद जाय या भिद जाय अथवा प्रलय को प्राप्त हो। चाहे चला जाये जहाँ पर ये मेरा किंचित् नहीं॥ बाहर में उन मुनिराज का शरीर बाणों से भेदा जा रहा था, परन्तु वे अंदर आत्मा को मोह-बाण नहीं लगने देते थे। वे गंभीर मुनिराज तो स्वरूप की मस्ती में मस्त, अडोल प्रतिमायोग धारण किये हुए बैठे हैं। बाहर में मस्तक भले ही अग्नि में जल रहा हो, परन्तु अंदर आत्मा तो चैतन्य के परम शांतरस से ओतप्रोत है। शरीर जल रहा है फिर भी आत्मा स्थिर है, क्योंकि दोनों भिन्न हैं। जड़ और चेतन के भेदविज्ञान द्वारा चैतन्य की शांति में स्थित होकर घोर परिषह सहनेवाले मुनिराज, अत्यन्त शूरवीर, जिस दिन दीक्षा ली, उसी दिन शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों को भस्म कर केवलज्ञान और फिर मोक्ष प्राप्त किया ? “अंत:कृत'' केवली हुए, उनके केवलज्ञान और निर्वाण दोनों ही महोत्सव देवों ने एक साथ मनाये। . एकाएक राजपुत्र गजकुमार के दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष की बात सुनकर, समुद्रविजय महाराज एवं श्रीकृष्ण को छोड़कर उनके नौ पुत्रों (नेमिप्रभु के पिताजी एवं भाइयों) ने संसार से विरक्त होकर जिनदीक्षा धारण की। श्री नेमिप्रभु की माताजी शिवादेवी आदि ने भी दीक्षा ले ली। उसके बाद अनेक वर्ष विहार करते हुए नेमिप्रभु पुनः सौराष्ट्र में गिरनार पर्वत पर पधारे। आत्मसाधना के लिए गजकुमार स्वामी के इस उग्र पुरुषार्थ का प्रसंग १९वीं सदी में जन्मे क्रांतिकारी युगपुरुष श्री कानजीस्वामी को बहुत प्रिय था, वे यदा-कदा प्रवचन में उसका भावभीना वर्णन करके साधक
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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