SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ३ / ५० को अति उग्र पुरुषार्थ का स्वरूप समझाते थे, तब मुमुक्षु जीव भी चैतन्य के पुरुषार्थ से आप्लावित हो जाते और मोक्ष के इस अडोल अप्रतिहत साधक के प्रति उनका हृदय उल्लास से नम्रीभूत होता हुए बिना नहीं रहता । अहो ! जिसने पुरुषार्थ के द्वारा आत्म-साधना की है, उसे जगत का कोई भी प्रसंग रोक नहीं सकता । प्रभु (श्री नेमिप्रभु गिरनार पधारे और बलदेव वासुदेव - प्रद्युम्नकुमार आदि के दर्शन के लिए आये । फिर क्या हुआ ? उसे अगली कहानी में पढ़िये ।) द्वारिका कैसे जली ? (द्वारिका नगरी भले ही जल गयी हो, परन्तु धर्मात्मा की शांत पर्याय नहीं जली थी। वह तो अग्नि से तथा शरीर से भी अलिप्त चैतन्य रस में लीन थी।) श्री नेमिप्रभु गिरनार पधारे और श्रीकृष्ण, बलभद्र आदि उनके दर्शन करने के लिए आये । उस समय प्रभु के श्रीमुख से दिव्यध्वनि से वीतरागी उपदेश सुनने के बाद, बलभद्र ने विनय से पूछा - "हे देव ! आपके पुण्योदय से द्वारिकापुरी कुबेर ने रची है। अद्भुत वैभवयुक्त यह द्वारिका नगरी कितने वर्ष तक रहेगी ? जो वस्तु कृत्रिम होती है, उसका नाश होता ही है, अत: यह द्वारिका नगरी सहज विलय को प्राप्त होगी या किसी निमित्त के द्वारा ? तथा जिससे मुझे तीव्र स्नेह है - ऐसे इस मेरे भाई श्रीकृष्ण वासुदेव के परलोक गमन का क्या कारण होगा ? महापुरुषों का शरीर भी तो कोई स्थिर रहता नहीं है तथा मुझे जगत सम्बन्धी अन्य पदार्थों का ममत्व तो कम है, मात्र एक भाई श्रीकृष्ण के तीव्र स्नेह बंधन से क्यों बँधा हुआ हूँ।" तब तीर्थंकर श्रीनेमिनाथ प्रभु ने दिव्यध्वनि में आया "आज से बारह वर्ष बाद शराब के नशे की उन्मत्तता से यादवकुमार द्वीपायन मुनि को क्रोध उत्पन्न करायेंगे और वे द्वीपायन मुनि (बलभद्र के मामा ) क्रोध -
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy