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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग- २/४६ धन्य है गजराज तुमको ! तुमने आत्मा को समझकर जीवन सफल बनाया ! तुम पशु नहीं देव हो, धर्मात्मा हो, देवों से भी महान हो । बालको, देखो ! जैनधर्म का प्रताप !! एक हाथी जैसा पशु का जीव भी जैनशासन प्राप्त करके कितना महान हो गया ! तुम भी ऐसे महान जैनशासन को प्राप्त करके, हाथी की भाँति आत्मा को समझकर, उत्तम वैराग्यमय जीवन जियो ! यह जानने के लिए " भरत और हाथी " आगे क्या हुआ नामक कहानी पढ़ें। भरत और हाथी भगवान के उपदेश सुनकर महाराज लक्ष्मण ने पूछा "हे भगवन् ! यह त्रिलोकमण्डन हाथी पहले गजबन्धन तोड़कर क्यों भागा ? और फिर भरत को देखकर एकाएक शांत क्यों हो गया ?" - तब भगवान की वाणी में आया कि भरत का जीव और हाथी का दोनों पूर्वभव के मित्र हैं। उनके पूर्वभव का वृत्तान्त इसप्रकार है, उसे सुनो- “भरत और त्रिलोकमण्डन हाथी दोनों जीव बहुत भव पहले भगवान ऋषभदेव के समय में चंद्र और सूर्य नाम के दो भाई थे । मारीचि के मिथ्या उपदेश से कुधर्म की सेवा करके दोनों ने बंदर, मोर, तोता, सर्प, हाथी, मेंढक, बिल्ली, मुर्गा आदि बहुत भव धारण किये और दोनों ने एक-दूसरे को बहुत बार मारा, कई बार भाई हुए, फिर पिता-पुत्र हुए। इसप्रकार भवभ्रमण करते-करते कितने ही भव बाद भरत का जीव तो जैनधर्म प्राप्त कर मुनि होकर छठे स्वर्ग में गया । और यह हाथी का जीव भी पूर्वभव में वैराग्य प्राप्त करके मृदुयति नाम का मुनि हुआ । एकबार एक नगर में दूसरे एक महाऋद्विधारी मुनिराज बहुत गुणवान और तपस्वी थे, उन्होंने चार्तुमास में चार माह के उपवास किये,
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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