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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/४७ और फिर चार्तुमास पूरा होने पर अन्यत्र विहार कर गये। हाथी का जीव यानी वे ही मृदुयति मुनि तभी उस नगर में आये, तब भूल से लोगों ने उन्हें ही महा-तपस्वी समझ लिया और सम्मान करने लगे। उन्हें ख्याल आया कि लोग भ्रम से मुझे ऋद्विधारी तपस्वी समझ कर मेरा आदर कर रहे हैं - ऐसा जानते हुए भी मान (घमण्ड) के वश में उन्होंने लोगों को सच्ची बात नहीं बताई, कि पहले तपस्वी मुनिराज तो दूसरे थे और मैं दूसरा हूँ। अतः शल्यपूर्वक मायाचार करने का परिणाम उनके तिर्यंचगति के बन्ध का कारण बना; लेकिन मुनिपने के प्रभाव से वह जीव वहाँ से मर कर प्रथम तो छठे स्वर्ग में गया। भरत का जीव भी वहाँ था, वे दोनों देव मित्र थे। उनमें से एक तो इस अयोध्या का राजपुत्र भरत हुआ है और दूसरा जीव मायाचारी के कारण यह हाथी हुआ है। उसके मनोहर रूप को देखकर लंका के राजा रावण ने उसे पकड़ लिया और उसका नाम त्रिलोकमण्डन रखा। रावण को जीतकर राम-लक्ष्मण उस हाथी को यहाँ ले आये। लोगों की भीड़ देखकर घबराहट से वह बंधन को तोड़कर भागा था। लेकिन पूर्वभव के मित्रों का मिलन होने से पूर्वभव के संस्कार जागृत होने से भरत को देखते ही हाथी पुनः शान्त हो गया। उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ है और अपने पूर्वभव की बात सुनकर वह संसार से एकदम उदास हो गया है, और अब आत्मा की साधना में उसने अपना मन लगाया है उसने श्रावक के व्रत अंगीकार किये हैं...... वह भी निकटभव्य है।" देशभूषण-केवली की सभा में अपने पूर्वभव की बात सुनकर वैरागी भरत ने वहीं जिनदीक्षा धारण कर ली और फिर केवलज्ञान प्रकट करके मोक्ष प्राप्त किया। उनका मित्र त्रिलोकमण्डन हाथी भी संसार से विरक्त हुआ, उसने भी आत्मानुभव प्रकट करके श्रावक के व्रत अंगीकार किये । वाह ! हाथी का जीव श्रावक बना.... पशु होने पर भी देवों से भी महान बना और अब अल्पकाल में मोक्ष प्राप्त करेगा।
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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