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________________ योगबिंदु पढममणच्चमसरणं, संसारो एगया य उन्नतम् । असुइ तं आसव संवरो य; तह निज्जरा नवमी ॥१॥ लोगसहावो बोहि दुल्हा, धम्मस्स साहगा अरिहा । आओ भावणाओ, भावेअव्वा पयत्तेणं ॥२॥ २९ १. अनित्य भावना : जिन पदार्थों को हम प्रात: जिस स्वरूप में देखते हैं, दोपहर को वैसे दिखाई नहीं देते और जो मध्याह्न में होते हैं वैसे रात को नहीं रहते। जो भोग्य वस्तुयें हैं अस्थिर भाव को धारण करती हैं। शरीर, धन, यौवन, क्षण भंगुर हैं। ऐसे नाशवंत पदार्थों पर आसक्ति रखकर, पापकर्म करना अनुचित हैं। इस प्रकार की भावना को अनित्यभावना कहते हैं, जो मनुष्य को पाप कर्म करने से रोक लेती है। आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरिजी ने एक सज्झाय में अनित्य भावना के सुन्दर भाव प्रकट किये है । यौवन धन स्थिर नहीं रहता रे प्रातः समय जो नजरे आवे, मध्यदिने नहीं दीसे जो मध्यान्ने सो नही रात्रे; क्यो वृथा मन हींसे । पवन झकोरे बादल विनसे; त्युं शरीर तुम नासे लच्छी जल तरंगवत् चपला; क्युं बांधे मन आशे । वल्लभसंग सुपनसी माया; इसमें राग ही कैसा ? छिन में उड़े अर्क तूल ज्युं; यौवन जगमें ऐसा । चक्री हरि पुरन्दर राजे, मदमाते रसमोहे कौन देश में मरी पहुँचे, तिन कुं खबर न कोय । जगमाया में नहि लुभाये, आत्माराम सियाने अजर अमर तूं सदा नित्य है; जिनधुनि सुन काने । २. अशरण भावना : सांसारिक आधि, व्याधि, उपाधि और सप्तभय से बचाने वाला धर्म ही है। धर्म के बिना दूसरी कोई भी शरण सच्ची नहीं । धर्म की शरण ही सच्ची है। दूसरों की शरण झूठी है । यह अशरण भावना है । ३. संसार भावना : संसार के स्वरूप का ध्यान करना । चौरासी लाख जीवयोनि के विविध दुःखों के प्रति जागृत रहना ।
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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