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________________ योगबिंदु कर्मणो योग्यतायां हि कर्ता तद्व्यपदेशभाक् । नान्यथाऽतिप्रसङ्गेन लोकसिद्धमिदं ननु ॥१३॥ अर्थ : कर्म की अर्थात् कर्मगत योग्यता होने पर ही जीव को उसका कर्ता कहा जाता है; यह जगप्रसिद्ध बात है। अन्यथा कर्मगत योग्यता के बिना कर्ता मानने से कर्तृत्व में अतिव्याप्ति का दोष आता है ॥१३॥ विवेचन : कर्मगत योग्यता होने पर ही अर्थात् जिस जीव पर क्रिया करनी हो, उस जीव में क्रियमाणक्रिया होने की योग्यता होनी ही चाहिये, यदि क्रिया होने की योग्यता न हो तो लाख प्रयास करने पर भी क्रिया के अयोग्य पदार्थ के ऊपर क्रिया कभी नहीं हो सकती, जैसे हम मूंग को पकाना चाहते हैं, जिस मूंग में पक्क क्रिया होने की योग्यता ही नही हो वह मूंग कितना भी इन्धन जलाने पर भी पक नहीं सकता । अर्थात् पदार्थ क्रिया के योग्य हो तभी उस पर किया करने वाला उस क्रिया का कर्ता हो सकता है । यदि पदार्थ में किया पाने की योग्यता ही न हो तो सारे प्रयत्न निष्फल हो जायेंगें और फलरूप कुछ भी परिणाम नहीं होगा यह बात लोक प्रसिद्ध है, अतः इसके लिये किसी भी युक्ति व प्रमाण की जरूरत नहीं हो सकती । विशेष स्पष्टीकरण के लिये कह सकते हैं कि पुरुष के उदर से बालक का जन्म नहीं हो सकता, पुरुष का उदर गर्भधारण के योग्य बन ही नहीं सकता, स्त्री के ओष्ठ के उपर कभी मूंछ उग नहीं सकती, स्त्री के शरीर के भागरूप ओष्ठ के उपर मूंछ उगने की योग्यता ही नहीं है। गाय, बैल आदि पशु कभी मानव के समान स्पष्ट भाषा बोल ही नहीं सकते, क्योंकि उनमें स्पष्ट भाषा बोलने की योग्यता ही नहीं है, अतः सिद्ध यह होता है कि योग्यता के बिना कोई भी कार्य नहीं सकता ॥१३॥ अन्यथा सर्वमेवैतदौपचारिकमेव हि । प्राप्नोत्यशोभनं चैतत् तत्त्वतस्तदभावतः ॥१४॥ अर्थ : अन्यथा अर्थात् योग्यता के बिना भी ये सब कार्य होने लगे तो सारे पदार्थ औपचारिक ही बन जायेगें और ऐसा हो जाय तो यह ठीक नहीं होगा क्योंकि उसमें तत्त्वतः सत्य का अभाव हो जाता है ॥१४॥ विवेचन : अन्यथा-अर्थात् कर्मगत योग्यता के बिना ही कर्ता मानने से कर्ता, कर्म, क्रिया आदि जो व्यवस्था है यह औपचारिक ही बन जायगी । जिसका कर्ता वास्तविक न हो; औपचारिक हो; फिर भी उसे कर्म का कर्ता माने तो व्यवहार प्राय: लुप्त हो जाता है, क्योंकि औपचारिक वस्तु वास्तव में होती ही नही है। जैसे 'पुरुषसिंहः' में पुरुष पर सिंहत्व का आरोप केवल औपचारिक लाक्षणिक है, पुरुषसिंह कहने से पुरुष सिंह नहीं बन (सकता) जाता । इसी प्रकार कर्मगत योग्यता को स्वीकार न करने से अमुक व्यक्ति ने अमुक कर्म किया यह तत्त्वत: वास्तव में कहा नहीं जायेगा,
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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