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________________ १६ योगबिंदु परिणामतः पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष की शास्त्रीय सब व्यवस्था काल्पनिक सिद्ध होगी और जब मुख्य मोक्ष आदि ही काल्पनिक सिद्ध होंगे तो सर्व सत्प्रयत्न व्यर्थ हो जायेंगे, इसलिये आत्मा में तात्त्विक भाव से कर्मसंयोग और कर्मवियोग की योग्यता को स्वीकार करना चाहिये तथा कर्म में भी बन्ध और वियोग की योग्यता स्वीकृत करनी चाहिये । ग्रंथकार का आशय है कि औपचारिक पदार्थ सद्रूप नहीं होते, इस कारण जो पदार्थ वास्तविक हैं, उसे औपचारिक नहीं मानना चाहिये । प्रस्तुत में जिसमें क्रिया करने की योग्यता ही नहीं है, उसको भी कर्ता माना जाय अर्थात् उपचार से अकर्ता को भी कर्ता माना जाय तो सारा व्यवहार ही नष्ट हो जायेगा । एक आदमी लोहे के गोल टुकड़े को उपचार से चांदी का रूपया मानकर, बाजार में कुछ खरीदने जायेगा तो दुकानदार उसे शीघ्र पुलिस के सुपुर्द कर देगा । बाजार में इस प्रकार का उपचार कभी भी नहीं चल सकता । जलते हुये अंगारे को उपचार से शीतल जलरूप जानकर, किसी के उपर फेकेंगे तो क्या परिणाम आयेगा ? सब समझ सकते हैं । तात्पर्य यह है कि जहाँ वास्तविक प्रवृत्ति होनी चाहिये वहाँ उपचार कभी नहीं चल सकता । जिस पदार्थ में क्रिया ही नहीं हो सकती वहाँ क्रिया का उपचार करना; जिसमें कर्तृत्व ही नहीं उसे कर्ता मानकर व्यवहार करना यह सब प्रयत्न गगनकुसुम के समान है। प्रस्तुत में आत्मा में जो योग्यता मानी गई है; वह उपचार जन्य नहीं है और जो कर्माणुओं का बन्ध होता है वह भी कोई औपचारिक कल्पना नहीं है । कर्मबन्ध के हेतु एवं करने वाला जीव यह सब कल्पना कल्पित नहीं, औपचारिक नहीं । ऐसा होने पर इन सबको औपचारिक माना जाय तो संसार अभावरूप बन जायगा । कल्पना कल्पित मानने से कर्म कल्पित बन जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसी बात कोई भी दार्शनिक नहीं मानता । अत: व्यवहार के क्षेत्र में कहीं भी उपचार लगाना-मानना सरासर असत्य है। प्रस्तुत आत्मा की योग्यता न होने पर भी केवल ईश्वर के अनुग्रह से आत्मा को मुक्त मानना औपचारिक है । औपचारिक बात सत्य नहीं होती इसमें आत्मा की योग्यता को मानना ही चाहिये स्वीकारना ही चाहिये ||१४|| उपचारोऽपि च प्रायो, लोके यन्मुख्यपूर्वकः । दृष्टस्ततोऽप्यदः सर्वमित्थमेव व्यवस्थितम् ॥१५ ॥ अर्थ : प्राय: लोक में उपचार भी मुख्यार्थ पूर्वक ही किया जाता है । यह हमारा अनुभव | यहाँ भी मुख्य वस्तु को बाधा - आपत्ति न आये ऐसी ही व्यवस्था उचित है ॥१५॥ विवेचन : उपचार भी कहाँ और कैसे करना, उसका स्वरूप बताया है कि लोकव्यवहार में भी जहाँ उपचार-आरोप की शक्यता हो, उस वस्तु के मुख्य धर्म - गुण, स्वभाव को लक्ष्य में रखकर ही आरोप - उ -उपचार किया जाता है, परन्तु जिस का स्वरूप दृष्टिगोचर न होता हो और भविष्य में भी कभी दृष्टिगोचर होने की सम्भावना न हो, ऐसी वस्तुओं में उपचार व्यभिचारी माना जाता , “मेरु मन्थनेन मथितो नीरनिधिः सुरैः " यहाँ पर शेषनाग पर रस्सी का उपचार, मेरु -
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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