SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८९ - ३९१ ३९२-३९३ ३९४ ३९५ ३९६ ३९७ ३९८-३९९ ४०० - ४०१ ४०२-४०३ ४०४ ४०५-४०६ ४०७-४०८ ४०९ - ४१० ४११ ४१२-४१३ ४१४ ४१५-४१७ ४१८ ४१९-४२० ४२१ ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२७-४२८ अध्यात्म के बारे में मत-मतांतर योग धर्म एकांतिक फल देने वाला है इसे जोर देकर बताते हैं आत्मस्वरूप का निरीक्षण ही योग्य है। आत्मस्वरूप का निरीक्षण किस प्रकार करना भावना में अध्यात्मतत्त्व बताते हैं अध्यात्म के विषय में अन्य पंडितों के मत देवादिक के वंदन के बारे में विशेषतः बताते हैं प्रतिक्रमण का स्वरूप और उसे कब करना मैत्री आदि भावना का स्वरूप योगशास्त्र के विचारकों के मत से अध्यात्म का स्वरूप योग के अंतिम भेद वृत्तिसंक्षय का स्वरूप आत्मा की योग्यता का अभाव माने तो बंध आदि घटित नहीं हो दृष्टांत को दृष्टांतिक के साथ घटित करते हैं ज्ञानादि योग में उत्साह की आवश्यकता उत्तम योग की प्राप्ति के उपाय आत्मा का पुरुषार्थ कब सफल होता है अकेले पुरुषार्थ से कार्यसिद्धि क्यों नहीं हो सकती करणयोग का स्वरूप संप्रज्ञात समाधि का स्वरूप और फल असंप्रज्ञात समाधि का स्वरूप अन्य दर्शनकारों के मत से परमात्म दशा के विभिन्न नाम सर्व समाधियोग का फल भवितव्यता निमित्त रूप से होती है योग की प्राप्ति के लाभ भगवान किस प्रकार की देशना (उपदेश ) देते हैं कई अन्य दर्शनवादी मुक्त अवस्था में केवलज्ञान नहीं मानते, उन्हें उत्तर ३९ २२४ २२६ २२६ २२७ २२७ २२८ २२८ २२९ २३० २३२ २३२ २३३ २३४ २३४ २३६ २३७ २३८ २४० २४१ २४३ २४३ २४४ २४५ २४५ २४५ २४६
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy