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________________ ३३५-३३६ ३३७-३३८ ३३९-३४२ ३४३-३४५ ३४६-३५१ ३५२ ३५३-३५४ ३५५ ३५६ ३५७ ३५८-३५९ ३६०-३६२ ३६३ ३६४-३६५ ३६६-३६७ ३६८-३७१ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५-३७७ ३७८- ३७९ ३८० - ३८१ ३८२-३८६ ३८७ ३८८ द्रव्यकर्म और भावकर्म का परस्पर संबंध चरम पुगलपरावर्त में कौन बाध्य - बाधक होता है ग्रंथभेद होने के बाद आत्मा का कैसा स्वरूप पैदा होता है उचित प्रवृत्ति में आदर और अनुचित प्रवृत्ति का त्याग बिना उपदेश अगर शुभ भाव हो सकता हो तो उपदेश की क्या आवश्यकता समकिती जीव देशविरति और सर्वविरति कब प्राप्त करता है। मार्गानुसारीता कब मालूम होती है आत्मा किस अवस्था में संसार का पार पा सकती है मार्गानुसारी से विपरीत चलने वाला विरुद्ध फल प्राप्त करता है देशविरति और सर्वविरति के साथ योगतत्त्व का संबंध अध्यात्मयोग का स्वरूप और फल भावनायोग का फल और स्वरूप ध्यानयोग का फल समतायोग का स्वरूप और फल वृत्तिसंक्षय का स्वरूप और फल तात्त्विक और अतात्त्विक योग का स्वरूप सानुबंध और अननुबंध योग का स्वरूप योग में आते अपाय अन्य मतवादी भी योग में अपाय मानते हैं सास्रव और निरास्रव योग का स्वरूप चरम शरीरी को अनास्रव क्यों कहा जाता है अध्यात्म योग का स्वरूप जप - जाप कब करना और उसका त्याग कब करना जाप का कालमान शुभ अभिग्रहों की प्रशंसकता ३८ १९५ १९७ १९८ २०० २०१ २०५ २०५ २०६ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० २११ २१२ २१४ २१६ २१७ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ २२४ २२४
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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