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________________ 60 योगबिंदु हम स्वभाव स्वीकार करने से अन्य - काल, नियति पुरुषार्थ आदि का निषेध नहीं करते / इन सभी निमित्त कारणों को हम मानते हैं; किसी का निषेध नहीं करते // 78 // कालादिसचिवश्चायमिष्ट एव महात्मभिः / सर्वत्र व्यापकत्वेन, न च युक्त्या न युज्यते // 79 // अर्थ : कालादि सहित स्वभाव महात्माओं को इष्ट है। सर्वत्र व्यापक होने से युक्ति-हीन भी नहीं है // 79 // विवेचन : काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ और प्रारब्ध इन पांचों के सहयोग से कार्य सिद्ध होता है; ऐसा श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री मल्लवादी जिनचंद्रगणि क्षमाश्रमण देवद्धिगणि क्षमाक्षमण आदि सभी जैन महात्माओं ने स्वीकार किया है। यह तथ्य केवल उनको इष्ट है, इसलिये माना है ऐसी बात भी नहीं, शास्त्रों में - सन्मतितर्क आदि ग्रंथों में यह तथ्य तर्क, हेतु तथा युक्तियों से सिद्ध करके भी बताया है, इसलिये यह तथ्य युक्ति से असिद्ध है ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि काल आदि पांचों निमित्त कारणों का समवाय समस्त उपादान कारणों से होने वाले कार्यों में सर्वथा व्यापक ही हैं // 79 // तथात्मपरिणामात् त, कर्मबंधस्ततोऽपि च / तथा दुःखादि कालेन, तत्स्वभावाहते कथम् // 80 // अर्थ : तथाप्रकार के आत्मा के परिणामों से कर्मों का बन्धन होता है और उसके बाद कालानुसार सुख-दुःखादि होता है; यह सब स्वभाव बिना कैसे घटित हो ? // 80|| विवेचन : अकेले काल को संसार का मुख्य कारण नहीं मान सकते, जैसे वर्षाऋतु, शीतऋतु और ग्रीष्मऋतु यथासमय क्रमपूर्वक आती है / इसी प्रकार जीव अपने आत्मपरिणामों, अध्यवसायों, भावना द्वारा जैसा कर्मों का बन्ध करता है, उसका विपाकोदय योग्यकाल में सुख-दुःख का अनुभव होता है, अगर जीव का तथा प्रकार का कर्मबन्ध रूप स्वभाव ही न होगा तो विपाकोदय के समय सुख-दुःख का अनुभव कैसे होगा? स्वभाव तो मुख्य उपादान कारण है / मुख्य कारण बिना निमित्त कारण क्या कर सकते हैं / घर निर्माण में उपादान मिट्टी ही नहीं होगी तो अन्य निमित्त कारण क्या करेगें। इसलिये सभी कारण तभी उपयोगी है, जब स्वभाव को माने / स्वभाव सहित कालादि उपयोगी है। जैसे बीज होता है, उसे बोते हैं और समय परिपक्क होने पर फल की प्राप्ति होती है, परन्तु बीज ही न हो तो फल कहां से होगा? इसी प्रकार आत्मा का जो परिणाम-स्वभाव है वह बीजरूप हैं, अगर उसे ही नहीं माने तो कर्मों का बन्ध और परिपाक काल में उसका भोग कैसे घट सकता है ? // 8 //
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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