________________ 61 योगबिंदु वृथा कालादिवादश्चन्न तद्बीजस्य भावतः / अकिंचित्करमेतच्चेन्न स्वभावोपयोगतः // 81 // अर्थ : यदि कालादिवाद को वृथा कहो, तो उचित नहीं है। उसका (कालादि का) बीज (शक्ति) (स्वभाव में) होता है, अगर उसे अकिञ्चित्कर-निरुपयोगी कहो; तो स्वभावोपयोगी होने से वह भी उचित नहीं // 81 // विवेचन : यदि कोई कहे कि वस्तु का स्वभाव ही वस्तु को बनाता है, उसमें काल, नियति, पुरुषार्थ और कर्म आदि को मानने की क्या जरूरत है ? तो समाधान करते हैं कि अकेला स्वभाव कार्यसाधक नहीं हो सकता, क्योंकि स्वभाव में काल, नियति, पुरुषार्थ, कर्म बीजरूप में रहे हुये हैं, उनकी शक्ति रही हुई है। अगर कोई कहे कि वह शक्ति अकिञ्चित्कर-निरुपयोगी है, कुछ भी करती नहीं तो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि कालादि सभी स्वभाव के उपयोगी हैं, उपकारक हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु का स्वभाव, वस्तु-निर्माण में उपादान-मुख्य कारण हैं और दूसरे कालादि निमित्त कारण और सहकारी कारण हैं / सभी के संयोग से ही कार्य की निष्पत्ति होती है। अकेला उपादान कुछ नहीं कर सकता / उपादान को कार्यरूप में परिणत होने के लिये निमित्त और सहकारी सभी कारणों की जरूरत होती है / इनके बिना वह कार्यरूप में परिणत नहीं हो सकता // 81 // सामग्रयाः कार्यहेतुत्वं, तदन्याभावतोऽपि हि / तदभावादिति ज्ञेयं, कालादीनां नियोगतः // 82 // अर्थ : (सर्व कारणों की) सामग्री का सहकार (कार्यसाधक-संयोगमात्र) कार्य में हेतु है, क्योंकि स्वभाव से अन्य (कालादि का) अभाव होने से कार्य का अभाव होता है / इसलिये कालादि का संयोग कार्य में हेतु है, ऐसा निश्चित जानना // 82 / / जैसे घट निर्माण में मिट्टी उपादान कारण होने पर भी कुम्भार, उसका पुरुषार्थ, चक्र, दण्ड, पानी, काल और आकाश-स्थान आदि की जरूरत होती है / इन निमित्त और सहकारी कारणों की सामग्री के सहयोग से ही घट तैयार होता है। यदि निमित्त और सहकारी कारणों का सहयोग न मिले तो अकेली मिट्टी घट तैयार नहीं कर सकती / इसलिये कालादि का संयोग भी आवश्यक है, उपकारक है। इसी प्रकार संसार में आत्मा और पुद्गल आदि अपने स्वभाव से परिणाम-पर्याय करने में समर्थ होने पर भी काल, नियति आदि निमित्त, सहकारी कारणों से वह यथायोग्य परिणाम को प्राप्त करते है। इसी प्रकार जीव का मुक्तिरूप कार्य भी स्वभाव, काल, नियति, कर्म पुरुषार्थ के सहयोग से ही होता है, अकेले स्वभाव से कार्य सिद्ध नहीं होता / यद्यपि स्वभाव आत्मा के साथ नित्य रहा हुआ है तथापि जब तक सर्व सामग्री नहीं मिलती तब तक आत्मा मुक्त नहीं हो सकती // 82 //