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________________ योगबिंदु (स्वभावरूप योग्यता को अगर न स्वीकारें, तो) प्राणियों को इनका (अनन्त पुद्गलपरावर्तों का) ज्ञान नहीं हो सकेगा। सूक्ष्मबुद्धि से यह विचारो ! // 75 / / विवेचन : प्राणीमात्र का पुद्गलपरावर्त भी उसके स्वभाव के कारण ही अनन्त हैं, अगर आत्मा के उस स्वभावरूप योग्यता को न माने तो प्राणियों को इन पुद्गलपरावर्तों का ज्ञान नहीं हो सकेगा / क्योंकि कहा भी है : जीवस्य ज्ञस्वभावत्वात्, मतिज्ञानं हि शाश्वतम् / संसारे भ्रमतोऽनादौ, पतितं न कदापि यत् // ज्ञान जीव का स्वभाव है, क्योंकि मतिज्ञान (अतिअल्प भी) शाश्वत है / अनादि काल से संसार में भटकते हुए भी ज्ञान का बिल्कुल अभाव कदापि नहीं होता / अव्यक्त, अत्यन्त सूक्ष्मरूप में भी ज्ञान अवश्य रहता है; उसका सर्वथा नाश कभी भी नहीं होता कहा भी है : अक्षरस्य अनन्ततमो भागो नित्योद्घाटित एव हि / अक्षररूप जो परमशुद्ध केवलज्ञान, उसका अनन्तवां भाग सर्व संसारी जीवों के लिये नित्य खुला रहता है / निगोदरूप अत्यन्त सूक्ष्म शरीरधारी जीवमात्र को भी अपने सुख-दुःख जानने का सूक्ष्म अव्यक्त ज्ञान उनके अन्दर होता ही है, अगर सूक्ष्म अव्यक्त ज्ञान उन्हें न हो तो वह चेतन नहीं रहेगा, जड़ हो जायेगा, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता / सूक्ष्म बुद्धि से गम्भीरता पूर्वक विवेक से विचार करें // 75 // यादृच्छिकं न यत्कार्य, कदाचिज्जायते क्वचित् / सत्त्वपुद्गलयोगश्च, तथा कार्यमिति स्थितम् // 76 // अर्थ : जगत में कोई भी कार्य, कहीं भी-कभी, अचानक नहीं होता; जीव और पुद्गल का योग भी वैसा ही कार्य है; यह सिद्ध है // 76 / / विवेचन : कोई भी कार्य, किसी भी काल में या क्षेत्र में, कभी भी अचानक नहीं होता। जगत में हमेशा प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण होता है। कारण बिना कार्य कभी नहीं होता, यह स्पष्ट है, प्रसिद्ध है, सर्वमान्य है। यहा सत्त्व याने जीवात्मा और पुद्गल का जो संयोगसम्बन्ध है वह भी वैसा ही कार्य है। जैसे धुआं निकलता है वह कार्य, अकेली अग्नि का भी नहीं है और न ही अकेली लकड़ियों का है, परन्तु जब गीली लकड़ियों में अग्नि का संयोग-सम्बन्ध होता है तभी धुंआ रूप कार्य होता है। वैसे ही आत्मा को मनुष्यत्व, राज्यत्व, श्रेष्ठित्व आदि प्राप्त होते हैं, वे भी जीव द्वारा पूर्वभव में किये गये शुभाशुभ विचारों के साथ जब कर्मदल के पुद्गलों का ग्रहण होता है, तभी उसके विपाक रूप में परिणाम स्वरूप, आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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