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________________ योगबिंदु 57 अर्थ : अति दीर्घ संसार होने से, अतिशय मलिनता (कर्ममल) होने से तथा अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि का कदाग्रह होने से अन्यों में (उपरोक्त गुणविकलों में) अध्यात्म कदापि संभव नहीं है // 73 // विवेचन : जो चरम शरीरी नहीं, शुक्लपाक्षिक नहीं, जो भिन्न ग्रंथी और चारित्री नहीं उनका संसार तो बहुत लम्बा होता है, क्योंकि उनका कर्ममल खूब प्रगाढ़ होता है / "मैं जो मानता हूँ या मैं जो कहता हूँ, वही सच्चा हैं" ऐसे, मिथ्या अभिनिवेशी, कदाग्रही तथा उपरोक्त गुण विकल विहीन दीर्घ संसारी व्यक्तियों में अध्यात्म सम्भव नहीं है / अध्यात्म की दुर्लभता में संसार की रुचि ही प्रतिकूल कारण हैं, उसमें भी मलिनता की प्रगाढ़ता और अतत्त्वाभिनिवेश याने विपरीत वस्तुस्वभाव के विषय में कदाग्रह धारण करना, वहां अध्यात्म कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् कभी नहीं, क्यों? अन्य सन्त पुरुषों का सत्य उपदेश उनके हृदय में उतरता नहीं मिथ्याभिनिवेश होने से // 73 // __ अनादिरेष संसारो, नानागतिसमाश्रयः / पुद्गलानां परावर्ता, अत्रानन्तास्तथा गताः // 74 // अर्थ : यह संसार अनादि है; नाना प्रकार की गतियों से युक्त है और इसमें प्राणियों के अनन्त पुद्गल परावर्त व्यतीत हो चुके हैं / / 74 // विवेचन : संसार का आरम्भ और अन्त कहीं दिखाई नहीं देता, इसलिये इसे अनादि-अनन्त कहा जाता है / चार गतियों से युक्त हैं, उसमें भी विचित्र प्रकार की चौरासी लाख जीवयोनि है। उन चौरासी के उत्पत्ति चक्र में जीव अनन्त-अनन्त बार जन्म-मरण कर चुका है। संसार का कोई प्रदेश, पुद्गल, परमाणु ऐसा नहीं जहां जीव ने अनन्त बार जन्म-मरण धारण न किया हो / जीवविचार में बताया है : एवं अणोरपारे संसारे, सायरंमि भीमंमि / पत्तो अणंतखुत्तो, जीवेहिं अपत्तधम्मेहिं / / इस प्रकार जिसका आदिभाव तथा अन्तभाव अर्थात् जिसकी शुरुआत और समाप्ति नहीं वैसे। अनेक दुःखों से भयंकर, संसार-समुद्र में भटकते हुये जीव को जब तक सम्यक् धर्म की, सम्यक्त्वधर्म की प्राप्ति नहीं हुई, आराधना नहीं की तब तक अनन्त बार जन्म-मरण करना पड़ता है और करेगा कारण कि जीवों में वैसा योग्यतारूप स्वभाव रहा हुआ है, इसी स्वभाव की आवश्यकता को ग्रंथकार नीचे के श्लोक में कहते हैं // 74|| सर्वेषामेव सत्त्वानां, तत्स्वाभाव्यनियोगतः / नान्यथा संविदेतेषां, सूक्ष्मबुद्धया विभाव्यताम् // 75 // अर्थ : सभी प्राणीयों का अनन्त पुद्गलपरावर्त करने का स्वभाव आवश्यक है अन्यथा
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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