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________________ [ ६५ ] (४) हारे मारे चंद्रक्दन जिन चन्द्रप्रभु जगनाथ जी, दीठो मीठो इठ्ठो जिनवर आठमो रे लो; हार मारे मनडानो मानीतो प्राण अधार जो, जग सुखदायक जंगम सुरशाखो समोरे लो !॥१॥ हार मारे शुभ आशय उदयाचल समक्ति सुर जो, विमल दशा पूरवदिशि उग्यो दीपतो रे लो; हारे मारे मैत्री मुदिता करुण ने माध्यस्थ जो, विनय विवेक सुलंछन कमल विकासतो रे लो ॥२॥ हारे मारे सद्हणा अनुमोदन परिमल पूर जो, पसर्यो मन मानस सर अनुभव वायरी रे लो; हारे मारे चेत्तन चकवा उपशम सरावर नीर जो; शुभ मति चकवी संगे रंगरमण करे रे लो ॥३॥ हारे मारे ज्ञान प्रकाशे नयण खुल्यां मुज दोय जो; जाणे रे षडूद्रव्य स्वभाव यथा पणे रे लो; हारे मारे जड चेतन भिन्न भिन्न नित्यानित्य जो; रूपी अरूपी आदि स्वरूप आपापणे रे लो ॥४॥ हरि मारे लखगुणदायक लखमणा राणी नंद जो; चरण सररुह सेवा मेवा सारखी रे लो, हारे मारे पंडित श्री गुरु क्षमाविजय सुपसाय जो; मुनि जिन जये जगमा जोता पारखो रे लो ।।५।।
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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