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________________ २५० नयनन्दि विरचित [११. ५. करता। आठ मदरूपी दुष्टों को दूर से त्यागता। नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का निर्वाह करता। दशलक्षण धर्म की आराधना करता। ग्यारह श्रावकगुणों का भाषण करता। बारह प्रकार के तप से अपने शरीर को सुखाता। तेरह प्रकार के चरित्र का परिपालन करता। चौदह प्रकार की जीवराशियों पर दयादृष्टि रखता। पन्द्रह प्रकार के प्रमादों से भय खाता। सोलह स्वर्म स्थानों की इच्छा न करता। सत्रह प्रकार के असंयमों को छोड़ता। अठारह संपरायों का मर्दन करता। उन्नीस नाह (घम्मकहा) के अध्ययनों तथा असमाधि-स्थानों की जानकारी प्राप्त करता। इक्कीस शबल दोषों का मंथन करता, तथा बाईस परीषहों को सहन करता। सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों व चौबीस जैन तीर्थंकरों की वाणी का व्याख्यान करता। पच्चीस भावनाओं का उद्गोपन करता। छब्बीस पृथ्वियों की परिभावना करता। मुनियों के सत्ताइस गुणों का उत्कर्ष करता। अट्ठाइस प्रकार के आचार प्रकट करता। उनतीस पापश्रुतों को दूर रखता। तीस मोह के स्थानों को चकनाचूर करता। इकतीस मल वादों ( दूषितवादों ) से घृणा करता, तथा बत्तीस जिनोपदेशों की वांछा करता था। इधर कुसुमपुर में जो पंडिता भाग कर आई थी, उसने देवदत्ता के समक्ष प्रसन्नता से यह कथा कही । ५. पंडिता ने देवदत्ता को सुदर्शन का पूर्ववृत्त सुनाया। इसी उत्तम भरतक्षेत्र के अंगदेश में चम्पा का राजा धाईवाहन है, जो अभयादेवी से संयुक्त तथा त्रैलोक्य का मोहक है। उसी चंपा नगरी में ऋषभदास नामका वणिक् रहता था। उसकी अहंदासी नाम की गुणवती भार्या थी। उसके सुदर्शन नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो युवा होने पर त्रिभुवन में विख्यात हुआ। वहीं पर सागरसेन नाम का एक दूसरा वणिक रहता था, जिसकी सागरसेना नाम की भार्या थी। उसकी मनोरमा नाम की सुन्दर पुत्री का विवाह सुदर्शन के साथ हुआ। उनके सुकान्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इसी बीच उपवन में एक मुनि आये। उस मुनि के पास धर्मश्रवण करके, ऋषभदास ने जिनदीक्षा ले ली। उसी नगर में कपिल भट्ट नाम के राजा का प्रिय पुरोहित रहता था। उसकी कपिला नाम की मनीष्ट भार्या थी, जो सुदर्शन से रमण करने के लिये उत्कंठित हुई। उसने अपनी सखी के द्वारा, मित्र के बहाने, सुदर्शन को अपने पास बुला लिया। सुदर्शन ने अपने को नपुंसक कहकर उससे छुटकारा पाया, और उसने भी उसकी इच्छा छोड़ दी। फिर वसन्त ऋतु में नंदनवन फूल उठा, और राजा पुरजनों के साथ वहाँ को चला। यहाँ अभयमती रानी ने वन को जाते हुए व कपिला के साथ क्रीडापूर्वक बातचीत करते हुए, यह प्रतिज्ञा ले ली कि यदि मैं उस वणिग्वर के साथ रमण न करूँ तो आत्मघात कर लूंगी। प्रेम में क्या दुष्कर है ? रानी ने घर आकर यह बात मुझसे कही। मैंने उसे पुनः पुनः रोका। किन्तु वह पंख लगी चींटी के सदृश क्षुद्रतावश उत्तेजित हो चमक उठी।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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