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________________ ११. ४] सुदर्शन-चरित २४९ नहीं की, जिससे उसने प्रभातकाल में ढोंग रचा, और अंत में लज्जित हो, वृक्ष से लटक कर आत्मघात कर लिया।" कोई बोली- "इसने अपनी कान्ता मनोरमा को छोड़ कर, दीक्षा रूपी वधू का वरण किया है। हे मुग्धे, तू क्यों इसकी ओर कटाक्ष से निरीक्षण करती है ? वह तेरी ओर ध्यान नहीं देता। री चन्द्रगृहीत ( बावली ), दूर हट, दूर हट। हे सखि, हे सखि, इसको अपने मन में मत बसा; उसके पीछे लग कर मत दौड़। इससे केवल लोगों में तेरी निर्लज्जता का प्रकाशन और उपहास होगा।" सुदर्शन मुनि अपनी दृष्टि चार हाथ आगे पृथ्वी पर देते हुए चलते व अत्यन्त मौनव्रत से रहते। वे ऐसी स्त्री-कथा नहीं करते, जिससे कामरस की उत्पत्ति हो। उन्होंने हास्य, रतिपूर्वक अवलोकन, परिग्रह, अपनी पूर्व रति के स्मरण का परित्याग कर दिया है। वे अब सुन्दर लड़ियों युक्त हार, सुन्दर कंकन, कुंडल व शेखर आदि आभरण धारण नहीं करते। वे स्त्री, तिथंच व नपुंसकों से रहित स्थान में वास करते व इन्द्रियों का दमन करते हैं। (यह मकराकृति छंद है। इसे कोई लताकुसुम भी कहते हैं।) नगर में चर्या करके वे मुनि लीलापूर्वक मंद गति से हस्ती की सूड के समान हाथों को नीचे लटकाए हुए स्मृतिकरणवश ( सामायिक के काल का ध्यान रखते हुए ) जिनमंदिर को गए। ... ३. मुनिधर्म का पालन वहां जिन मन्दिर में उसने अपने गुरु को नमस्कार करके, तथा अशन, खान, पान एवं स्वाद, इन चारों प्रकार की तृष्णा को छोड़, तत्क्षण प्रत्याख्यान ग्रहण किया। गुरु ने जिस प्रकार कहा, उसी प्रकार सुदर्शन ने समस्त कृति-कर्म का पठन किया। पांच उत्तम व्रत, पंच समिति, पचेन्द्रिय जय, षडावश्यक, केशलौच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतवण, स्थिति-भोजन और एक भक्त, ये अट्ठाईस मूल गुण कहे गए हैं। चौदह मल और बत्तीस अंतराय, इनका वह (सुदर्शन ) प्रमादरहित पालन करने लगा। सोलह उद्गम के, सोलह उत्पादन के दश एषणा के, एवं इंगाल, धूम, संयोजन एवं प्रमाण, इन छयालीस दोषों को छोड़ता हुआ वह धर्मध्यान करता हुआ रहने लगा। वह न रति करता और न अरति, न हास्य और न जुगुप्सा, वह न निद्रा के वश होता, और न पूजा-सत्कार की वांछा करता॥३॥ ४. सुदर्शन मुनि की साधनाएं सुदर्शन ग्रीष्म काल में पर्वत की शिला के ऊपर आतापन योग करता, वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे, एवं शीतकाल में बाहर खुले में निवास करता। वह अपने मन में एक परमतत्त्व का ध्यान करता; तथा राग और द्वेष, इन दो का निवारण करता। शरीर के कांटों रूप तीन शल्यों को दूर करता। चार कषाय रूप दुर्जनों का निर्दलन करता। पांच आस्रव-द्वारों का निरोध करता। छह जीव-निकायों की हिंसा न करता। सप्तभयों को अपने चित्त से योजित नहीं ३२
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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