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________________ ११.७] सुदर्शन-चरित २५१ ६. देवदत्ता की भीषण प्रतिज्ञा उसकी बात सुनकर, मैंने भी पुतले बनवाए, और उन्हें प्रगट नहीं किया। फिर प्रतिपदा आदि तिथियों में रात्रि के समय द्वारपालों के साथ कलह करके, मैंने उन्हें ( पुतलों को ) फोड़ डाला। फिर कपट प्रकाशित करके व भटों ( द्वारपालों ) को डराकर, मैं उस वणिग्वर को ले आई और उसे रानी को समर्पित कर दिया। उसने उसे बहुत मनाया। किन्तु जब वह नहीं माना, तब रानी ने अपने नखों से अपने स्तनों को नोंच, व लोगों को पुकार कर, उस गुणवान को मरवा डालने का प्रयत्न किया। किन्तु उसी समय वहाँ एक निशाचर प्रकट हो गया। उसने राजा के भटसमूह को स्तम्भित कर दिया और फिर युद्ध करके राजा से कहा कि तू उस लम्बितबाहु वणिग्वर के शरण में प्रविष्ट हो। राजा ने उस वणिक् को अपनी राज्यश्री देना चाहा। किन्तु उसने उसे स्वीकार नहीं किया, व तप धारण कर लिया। अभया ने त्रस्त होकर आत्मघात कर लिया, और मैं भागकर यहाँ आ गई। जब पंडिता ने इस प्रकार वृत्तान्त सुनाया, तब उस स्थूलस्तना गणिका ने हँसकर सहसा कहा-"मैं समझती हूँ कि वह कपिला (ब्राह्मणी ) व अभयारानी ( इस कार्य में ) दक्ष नहीं थीं। करणबंध, प्रेम-प्रवर्तन, रतिकर्म, एवं कोमलता से नख-घट्टन आदि मेरे कुल के विज्ञान हैं, और मैं इन सब कलाओं को जानती हूँ। जो वह वणिग्वर था, सो मुनिवर हो गया, ऐसा तू ने क्यों वर्णन किया ? जो-जो गले से गरजते थे, ऐसे किन-किन को मैंने अपने में अनुरक्त नहीं बनाया ? यदि मैं उसे दृष्टि में पड़ते ही तपश्चरण से भ्रष्ट कर, अपने वश में न करूँ, तो, हे त्रिभुवन-परमेश्वरि, कुण्डेश्वरि, मैं तेरे चरणों के आगे अपना बलिदान कर दूंगी।" नगर में प्रसिद्धि हुई और सुदर्शन के दर्शन के लिए युवती स्त्रियाँ ऐसी मोहित हो उठीं, जैसे सूर्य के उदित होने पर कमलिनी-वन । ७. सुदर्शन मुनि विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे ___ इसी बीच यहाँ अपने गुरु से पूछकर, देवों और मनुष्यों द्वारा प्रशंसित सुदर्शन मुनि जिनेन्द्र के चरणकमल-युगलों की वन्दना करते हुए, विहार करने लगे। उन्होंने साकेत में जाकर ऋषभ, अजित, अभिनन्दन, सुमति और अनन्त, इन तीर्थकरों को प्रणाम किया। श्रावस्ती में संभव जिनेन्द्र की वन्दना की, और फिर कौशाम्बी में पद्मप्रभ की। फिर बनारस में पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की, तथा चन्द्रपुरी में चन्द्रप्रभ भगवान की स्तुति की। काकन्दी में भगवान पुष्पदंत, भहिलपुर में भट्टारक शीतलनाथ, सिंहपुर में श्रेयांस जिनेश्वर, चंपा में परमेश्वर वासुपूज्य, काम्पिल्य में जगद्गुरु विमलदेव, रत्नपुरी में देवों द्वारा नमितचरण धर्मनाथ, गजपुर में शान्ति, कुन्थु और अरहनाथ जिनवर, मिथिला में मल्लि और नमि तीर्थकर, तथा राजगृह में मुनिसुव्रत, एवं शौरीपुर में उन्होंने अरिष्टनेमि की वन्दना की, व कुण्डलपुर में त्रैलोक्य नमित अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान का अभिनन्दन
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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