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________________ ६. ११] सुदर्शन-चरित ___९. दोनों मल्लों का युद्ध दोनों ही बड़े अक्खड, गर्व से उभट और देह से तेजस्वी ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे सुर और असुर हों। वे ऐसे मात्सर्ययुक्त थे, जैसे मानों शनिश्चर हों। वे युद्ध में कुशल, व अप्सराओं को सन्तुष्ट करनेवाले थे। वे समुद्र के समान गंभीर ध्वनि युक्त होते हुए अपने कार्य की घोषणा कर रहे थे। वे लक्ष्मी से अभिराम व सैन्य के स्वामी होते हुए ऐसे भयावने हो उठे, जैसे राम और रावण । वे एक दूसरे के सम्मुख आए, परस्पर शस्त्र प्रहार करने लगे, आघात होने पर घूमने लगे और रक्त से लथपथ हो गए। वे दोनों ऐसे सुन्दर थे, जैसे मंदराचल । वे भयवर्जित और देवों के भी पूज्य थे। ( यह सिद्धक छंद की सुन्दर रचना है)। तब राजा ने निशाचर के मद भरते हुए विशाल हस्ति-प्रवर को अपने दीर्घ वाणों से ऐसा आच्छादित कर दिया, जैसे मलयाचल विषधरों से आच्छादित हो । १०. निशाचर राजा के हाथी पर आ कूदा वह दीला हाथी ठुठा होकर भी समर में प्रवृत्त हुआ। तब राजा ने उसे अपने बाणों के जाल से पूर दिया, और फिर उस निशाचर पर सैकड़ों बाण चलाए । वे वाण प्रत्यंचा से प्रेरित होकर सीधे दौड़ते हुए ऐसे शोभायमान हुए, जैसे मुनि अपने गुगों से प्रेरित होकर ऋजु गति से मोक्ष की ओर गमन करते हैं। उस अवसर पर जब तक अपना हाथी पाहत होकर गिर नहीं पाया, तभी सहसा ही वह यातुधान ( राक्षस ) अंग के राजा के हाथी पर ऐसा जा चढ़ा, जैसे सिंह पर्वत पर जा कूदता है। वहां निशाचर और राजा, दोनों नानाप्रकार के शस्त्रों को त्याग कर युद्ध करने लगे। वे दोनों कोहनियों से, हाथ पकड़ने छोड़ने व धक्कों से, सिंह के समान झपटों से, उरस्थलों की ढकेलों से, तथा एक दूसरे के पार्श्व में मछली जैसी उछालों द्वारा परस्पर पेलापेली करने लगे। इस प्रकार क्रोधयुक्त व अतुल पराक्रम से शोभायमान शरीरधारी वे दोनों युद्ध करते हुए हाथी पर से नीचे गिर पड़े, जैसे मानों गगनांगन से दो क्रूरग्रह आ गिरे हों। ११. फिर दोनों रथारूढ हुए फिर राजा एक ऐसे उत्तम रथ पर सवार हुआ जो स्वर्ण-जटित था, जिस पर सुन्दर चिन्हध्वज उठा हुआ था, जो मणियों की किरणों से जगमगा रहा था, जिसमें मंद मंद घंटियों का स्वर उत्पन्न हो रहा था, जो मनोवेग से चल रहा था, जिसमें घंटे टनटना रहे थे, जो धूप के धूम्र से व्याप्त था, जहां भ्रमर गुंजार कर रहे थे, जिसकी सांकलें खनखना रही थीं, जो नाना प्रकार की हलचलों से चंचल था तथा जिसके घोड़े हिनहिना रहे थे। ज्यों ही राजा ऐसे रथ पर चढ़ा, त्योंही वह निशाचर भी शीघ्र ही, तत्क्षण एक दूसरे रथ पर आरूढ़ हो गया। वह एक क्षण
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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