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________________ २३४ नयनन्दि विरचित [६.७ ७. हस्ति-युद्ध अपने सैन्यों को परस्पर भिड़े हुए देखकर नरेन्द्र और निशिचर कुपित हुए और सन्नद्ध होकर, मत्त गजेन्द्रों पर आरूढ़ हो दौड़ पड़े। वे हाथी अलसी के फूलों के वर्ण के, अति दुर्द्धर, प्रतिपक्षी हस्तियों के लिए दारुण, श्वेत दांतोंवाले, पिंगल नेत्रों से युक्त तथा सूंड के मुख में रक्तवर्ण थे। वे मनोहर हाथी मोटाई में तीन हाथ, ऊँचाई में सात हाथ, गोलाई में दस हाथ तथा लम्बाई में नौ हाथ थे। वे पिछले भाग में नीचे को झुके हुए, अगले भाग में ऊपर को उठे हुए, पूँछ और सूंड से लम्बे तथा पीठ की रीढ़ ( मेरुदंड ) से विराजमान और दृढ़ होते हुए, चलायमान पर्वतों के समान शोभायमान थे। वे अपने पदों के भार से वसुधातल को झुका रहे थे; पाताल के समस्त नागों को चूरित कर रहे थे; तथा अपने कानों के तीव्र वायुवेग से समस्त समुद्रों को कंपायमान कर रहे थे। वे अत्यन्त गम्भीर थे; अपनी घोर गर्जना से समस्त वन को बहरा कर रहे थे; तथा कुम्भस्थल पर लिप्त चटकदार सिन्दूर से दशों दिशामुखों को अरुण-वर्ण बना रहे थे। वे हाथी दौड़ते, मुड़ते, सम्मुख खड़े होते, उर से उरस्थल को भिड़ाते, दंतायों से दांतों को तोड़कर सूंड से सूंड लपेट लेते थे। फिर वे तिरछे हो जाते, जूझते और क्षणमात्र भी निश्चल नहीं होते थे। ( यह अट्ठाईस मात्राओं से युक्त विज्जुला द्विपदी है)। फिर राजा के हाथी ने निशाचर के गज पर अपने दांतों के अग्रभाग से प्रहार किया और फिर उसको गिराकर उसके मार्ग में खड़ा हो गया, जैसे मानों किसी साहुकार ने अपने आसामी ( ऋणी) को करोड़ रत्न ऋण रूप दिये हों, जिन्हें वापिस मांगने पर ऋणी उसके चरणों में गिरकर रह जाये, और साहूकार अपना ऋण वसूल करने पर अड़ा रहे। ८. राक्षस और नरेश की परस्पर गर्वोक्तियाँ ऐसे अवसर पर अपने मन में व्यथित होकर वह पिशाच एक दूसरे गज पर आरूढ़ हुआ और बोला-"रे-रे भूगोचर, पापराशि, समरांगण को छोड़कर भाग, भाग, नानाप्रकार के उत्तम शस्त्र हाथों में लिए हुए तेरे किंकरों की जो अवस्था हुई, वही दशा कहीं तेरी न हो जाय ?" निशाचर के ऐसा कहने पर राजा ने उसे फटकारा-"तुझे ऐसा कहते हुए लाज नहीं आती? तू अपने को क्षण भर के लिए क्यों धोखा दे रहा है ? क्या चतुर भूगोचर लक्ष्मण ने दशानन का बध नहीं किया था ? जहाँ मेरे हाथी ने तेरे हाथी को मार डाला, वहाँ तू क्या प्रतिस्पर्धा करता है ? अथवा यदि तुझमें शक्ति है, तो आकर मुझसे भिड़। राक्षस को भी भयभीत करनेवाला मैं यहां आ पहुँचा हूँ।" इसप्रकार वे दोनों उत्तम हाथियों पर सवार हुए दुर्द्धर रोष को प्राप्त हो गये और गर्जना करते हुए परस्पर भिड़ गए, जैसे मानों पर्वत पर स्थित प्रबल सिंह परस्पर भिड़ गये हों।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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