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________________ २३६ नयनन्दि विरचित [६. १२. भी कहीं रुकता नहीं था, और समर में आगे बढ़ रहा था। (यह अमरपुरसुन्दरी द्विपदी कही गई )। वह चंपनरेश का उत्तम रथ, निशाचर के रथ से आक्रान्त होकर ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे प्रचुर सुवर्ण की कान्ति से चमकता हुआ देवपर्वत ( सुमेरु ) दिवाकर से आक्रान्त हुआ (शोभता ) है। १२. दोनों का रथ-युद्ध तब अपने रथ पर आरूढ़, लोगों के हृदय को सुखदायी, प्रवर पराक्रमी अंगनाथ ने अपने धनुष को खींचा, जिससे बड़ी टंकार-ध्वनि हुई। सुर और असुर मन में डर उठे। धरणि खूब थर्रा गई। दिग्गज पीछे हट गये। मनुष्यों को भय का ज्वर आ गया। खेचरसमूह खलखला उठे। पर्वतों के शिखर टलटलाने लगे। विषधर सलसला उठे और समुद्र भी झलझला उठे। तब वह निशाचर दूसरों को छोड़, प्रगटरूप से प्रत्यंचा चढ़ाकर, धनुष को लेकर आ डटा । तब राजा ने उस पर अपनी वाणावली छोड़ी। उसी समय निशाचर ने उसके धनुष और छत्र को खंडित कर दिया, जिससे वे पृथ्वी पर जा पड़े। ( यह चारुपदपंक्ति नामक सुन्दर द्विपदी है, इसमें सन्देह नहीं)। उस अवसर पर चंपाधीश ने तुरन्त निशाचर पर अपनी शक्ति छोड़ी, जो उसके हृदय में जा लगी और प्राणप्रिय विलासिनी के समान उसे मूर्छा उत्पन्न करने लगी। १३. निशाचर की पराजय व मूछो तब, जब आकाश-प्रांगण में सुरांगनाए एकत्र थीं, सुर और असुर परस्पर बातचीत कर रहे थे व अपने शरीर की कान्ति से प्रकाश फैला रहे थे, तभी महिला के पराभव से उत्पन्न हुए उस महायुद्ध में देवों से शंकित न होकर, तथा घन के समान गरज कर मन में क्रोधयुक्त राजा ने, निशाचर को फिर भी पराजित कर दिया, जिस प्रकार राहु सूर्य को जीत लेता है। तब वह निशाचर अपने मुख से कातर हो गया व अत्यन्त दुर्निवार शक्ति के प्रहार से, शरीर से कांपते हुए, मूछों को प्राप्त हो गया। वह जीयेगा या नहीं, इसमें संशय दिखाई देने लगा। इस अवसर पर जब राजा कोप-युक्त था, तब उस लंबबाहु वणिग्वर का कोई शरण नहीं रहा ; उसकी मृत्यु आ पहुंची। हाय, क्या किया जाय ? किससे कहा जाय ? ऐसी बात जिस क्षण चल रही थी, उसी क्षण वह पिशाच अपनी वेदना को शांत कर, सचेत हो उठा। वह निशाचर राजा के ऊपर ऐसा दौड़ पड़ा, जैसे मानों पर्वत पर वज्रदंड आ पड़ा हो। वह अपनी नानाविध विक्रियाओं सहित संग्राम में घटोत्कच के समान विचरण करने लगा। १४. निशाचर की विक्रियाएं निशाचर भ्रमण करते रुकता ही नहीं था। वह मातंगों का दलन करता, तुरंगों का हनन करता, भटसमूहों को घायल करता, रथों के अंग अंग का दलन
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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