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________________ २३३ ६. ६ ] सुदर्शन चरित वक्षस्थलों पर आघात कर रहे थे, और मिथुनों जैसे मूर्छा से विकल-शरीर हो रहे थे। तब राजा के सैन्य के समक्ष वह निशाचर की सेना कांपने, चलने, स्खलित होने, त्रस्त होने, खिसकने, श्वासें छोड़ने व भागने लगी, जिस प्रकार कि नई वधू भयभीत दिखाई देती है। ५. संग्राम से उठी धूलिरज का आलंकारिक वर्णन तब उस व्यंतर ने अपने सैन्य को धीरज बँधाया, जिससे वह गंभीर कलकल ध्वनि करता हुआ फिर से युद्ध में भिड़ गया। इसी समय सहसा धूलिरज उठकर मानों दोनों सैन्यों को युद्ध से रोकने लगा। वह उनके मानों पैरों लगकर मनाने लगा। फटकार दिये जाने पर भी वह कटाक्षों से उनकी कटि पर स्थिति प्राप्त करता। वहां से अपमानित होने पर भी रुष्ट नहीं होता, और वक्षस्थल में प्रेरणा करता हुआ दिखाई देता। वह योद्धाओं के दुर्निवार घातों से मानों शंकित होता, और दृष्टि-प्रसार को मानों बलपूर्वक ढक देता। वह कानों में लगकर मानों कहने लगा कि तेरे जिस अधरबिंब को रतिगृह में तेरी मनोहर रमणी ने अपने दातों से खंडित किया है, व जिस विशाल-वक्षस्थल को उसने अपनी बाहुओं से आलिंगित किया है, उसे अब शिवकामिनी को नहीं देना चाहिए, मेरी यह अभ्यर्थना भी मानिये। वह केशों में लगकर मानों रोष प्रकट करता और आकाश में जाकर मानों देवों में हाहाकार मचाता। उस क्षण समर में प्रहार करते हुए सुभटों ने रुधिर की नदी बहा दी; मानों काल ने देवों और मनुष्यों को भय देनेवाली अपनी जीभ पसार दी हो। ६. रुधिर-वाहिनी का आलंकारिक वर्णन सिगिरि के रूप में नानाप्रकार के वृक्षों से नमित, ध्वजाओं, चमरों व चिह्नों (ध्वजों) रूपी कल्लोलों से युक्त, उत्तम श्वेत अश्वारूपी फेन से उज्ज्वल, सहस्त्रों रथों रूपी ग्राहों की पंक्ति से युक्त, जगमगाते हुए खड्ग रूपी मछलियों से क्षुब्ध, बड़े बड़े हाथी रूपी खडवों ( गेंडों) से अत्यन्त क्षोभित, शब्दायमान तूर्यरूपी पक्षियों से व्याप्त, चलबलाती हुई आंतों रूपी डिंड से भरी, कुंभस्थलोंरूपी शुक्तिपुटों से चूरित, बहुत से दांतों रूपी रत्नों व बहुमूल्य मोतियों से बिखरी, गिरे हुए भटों के विकसित मुखों रूपी प्रफुल्ल कमलों से व्याप्त, गृद्धावलि रूपी भ्रमरावली से भ्रमित और मुखरित, तलवारों की धारों रूपी जल के पूर से विषम तथा वाणों के जाल रूपी सुदृढ़ पटी हुई भूमि के कारण सुगम वह रुधिर का प्रवाह एक नदी के समान शोभायमान हुआ। ( यह विसिलोय पद्धडिया छंद कहा गया )। 'मैं कुलीन (पृथ्वी में लीन ) होने पर अपमानित होता हूँ, और ऊपर उछलते हुए अकुलीन ( पृथ्वी से असंलग्न ) कहलाता हूँ' ऐसा सोचकर, मानों धूलिरज ने अपने को उस रुधिर की नदी में फेंक दिया। ३०
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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