SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८. २५ ] सुदर्शन चरित २१६ वह तो बुद्धिमानों के लिए बड़ा निन्दनीय है। उसका तो विचार करना भी बुरा है। जो कोई काम से खंडित नहीं हुआ, वही सराहनीय पंडित है। (यह उहिया नाम का छंद है ) सत्पुरुष का मन गम्भीर होता है। वह विपत्ति में भी कायर नहीं बनता। क्या सुरों द्वारा मंथन के आरम्भ होने पर सागर अपनी मर्यादा छोड़ देता है ? २४. सुदर्शन की धर्म-भावना व भीष्म-प्रतिज्ञा रे निहीन-दीन जीव, तू इन कारणों से पाप का आस्रव करता है :-परिग्रह के अप्रमाण से, मद्यपान व मांस भोजन द्वारा; ज्ञानी, संतों, संयमियों, देवों और साधुओं की निन्दा से; संक्लिष्ट, दुष्ट, ढीठ और क्रूर देवों की वन्दना करने से; कालकूट मिश्रित अन्न का भोजन देने से; वस्तुओं, स्त्री, धन, इष्ट व नष्ट का शोक करने से ; झूठी गवाही, झूठे नापतोल व नकली द्रव्य देने से; काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान और दम्भ की भावनाओं से; दूध में पानी, घृत में तेल व अनाज में धूल के मिश्रण से। इसी प्रकार जहाँ-तहाँ हास्य, रोष व खीज करने से, राजा वैरी, चोर, जार तथा स्त्री की कथा चलाने से; देश, राष्ट्र, ग्राम, सीमा दुर्ग व शैल ( पहाड़ी वन ) जलाने से; स्थूल व सूक्ष्म प्राणियों व जीवों के विदारण से; तथा लोलुप चक्षु, श्रोत्र, घाण, जिह्वा, व स्पर्शेन्द्रियों की प्रेरणा से। इस प्रकार चिंतन करके उस वणीन्द्र ने उत्तम प्रतिज्ञा ले ली। (यह अर्द्धजातिक चित्र नाम का छंद है )। यदि मैं इस अवसर पर यम के आघात से किसी प्रकार उबर (निकल) गया, तो कल दिन होते ही जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट तप ले लूँगा। २५. अभया का प्रेम-प्रस्ताव इस प्रकार, जब सुदर्शन व्रतपूर्ण सुप्रतिज्ञा ले रहा था, तभी राजपत्नी सहसा उसकी ओर देखकर सोचने लगी-'यह शृङ्गारहीन होते हुए भी साक्षात् कामदेव है। यदि यह अपने शरीर को आभूषित कर ले, तब तो समस्त जगत को मोहित कर लेगा; विरहाग्नि से संतप्त मेरा चित्त तो है ही कितना ? फिर वह अपनी स्वच्छ निमीलित आँखों सहित बोली-'तपाये हुए सुवर्ण के सदृश, अपने मुख से चन्द्र को जीतनेवाले, तथा स्त्रियों के चित्त में मद उत्पन्न करनेवाले, हे नाथ, आप क्या सोच रहे हैं ? हे सुन्दर, इस जन्म में तुम अतिपवित्र जिनधर्म में प्रयास करके स्वर्गवास ही तो पाओगे। किन्तु उस सुख से क्या लाभ, जो दुःखपूर्वक प्राप्त हो ? इसलिये लो, तुम इस प्रत्यक्ष रतिसुख का आदर करो। तुम अविचारी मत बनो ।- संसार में वही सार है, जो भोगने में मीठा और सोचने में स्वमनीष्ट ( अपना मनचाहा ) है। दूसरा जन्म किसने देखा है ? जो कुछ कौलागम में कहा गया है, उसको ध्यान में लाओ। हे प्रत्यक्ष कामदेव, तुम देर क्यों लगाते हो। (यह सुन्दर पदपंक्ति युक्त लीलाछन्द है)। हे सुन्दर,
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy