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________________ २२० नयनन्दि विरचित [८. २६यदि हम दोनों प्रेम से काल व्यतीत करें, तो कहो, उस मनोहर स्वर्ग को प्राप्त करके भी क्या करेंगे? २६. उसके प्रेम को स्वीकार करने के सुख हे सुभग, यदि तू ऐसे मन्दिर की इच्छा करता है, जो शंख, कुंद, चन्द्र, तुषार, हीरा, गौरी व गंगा की तरंगावली के सदृश शुभ्र हो; जो प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठम, सप्तम, अष्ठम आदि अन्यान्य माणिक्य भूमियों की जगमगाहट से समस्त दिशाओं को उज्ज्वल कर रहा हो; जहाँ विविध पुष्प-पुओं की किंजल्क से सम्मिश्रित कस्तूरी, कर्पूर व केशर की आमोद से भ्रमर दौड़ रहे हों, तथा जो चलती हुई स्त्रियों के पैरों के पैजनों के झनकार की ध्वनि से उन्मत्त होकर नाचनेवाले मोरों से उद्भासित हो। यदि तू ऐसी बालिकाओं की इच्छा करता है जिनके बाल भौरों के समान काले हों, जो कुवलय सदृश श्यामल हों; जो मकरध्वज से आलोड़ित, अत्यन्त भोली, किसलय सदृश कोमल, स्तनों के भार से आक्रान्त, चन्द्र की कान्ति को जीतनेवाली तथा वज्र के समान कृशोदरी हों; जो हार लटकाये हुए, लोगों के मन को हरण करनेवाली रति की सहोदरी हों। हे वणीन्द्र, यदि तू ऐसा उत्तम राजकुल चाहता है जहाँ सिर पर विविध छत्र विराजमान हों, जो ध्वजाओं से समाकुल हो, लोगों को सुन्दर दिखाई दे; और जहाँ नित्य उत्सवों द्वारा मंगल कार्य रचा जाता हो। यदि तू मनोज्ञ और चंचल घोड़ों, मद भरते हुए उत्तंग शैल सदृश हाथियों, सुवर्ण और मणियों की किरणों से लावित श्रेष्ठ रथों एवं सेवा में आये हुए, व प्रणाम करते हुए समस्त किंकरों की इच्छा करता है, तो हे सुभग, मेरा उपभोग कर और इस महीतल पर राजा बन। तू उस शंखनिधि के कथानक को सच्चा सिद्ध मत कर । २७. देवों में कामविकार के पौराणिक दृष्टान्त हे सुभग, क्या तूने कहीं यह विख्यात बात नहीं सुनी ? परस्त्रीगमन तो देवों में भी हुआ है। गौरी के परोक्ष में मदनाग्नि से संतप्त होकर हर ( महादेव ) गंगा से रमण करने के लिए कैलाश पर पहुँचे। गोपियों के सौन्दर्य से सँरक्त होकर दनुजारि-नारायण ( कृष्ण ) रति का उपभोग करने के लिए रात्रि में संकेतस्थल पर गये। ब्रह्मा ने तिलोत्तमा अप्सरा के विरह में रीछनी को भी नहीं छोड़ा; उसका भी वन में उपभोग किया। सूर्य ने कुन्ती का अभिगमन किया, जिससे उसे पुत्र उत्पन्न हुआ जो भुवन में कर्ण नाम से सुप्रसिद्ध है। श्री विश्वामित्र ने प्रिया का रमण किया, जिसे देख लेने के कारण उन्होंने चन्द्र को मृगचिह्न के आघात से सकलंक कर दिया। अहल्या के साथ रति में आसक्त इन्द्र को प्रत्यक्ष देखकर गौतम ने उसे सहस्त्र-भग और फिर सहस्त्राक्ष बना दिया। इस समस्त वृत्तान्त को जानकर तू बात मान ले। (यह निस्संदेह मदनावतार छंद है)।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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