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________________ २१८ नयनन्दि विरचित ८.२२ मनुष्यों को मोह लेती हैं । किन्तु वे उसके पैरों में बांधने लायक भी शोभा नहीं पातीं । यदि वह सप्तस्वरयुक्त वीणा बजा दे, तो मुनियों के भी कामज्वर ला देती है । जो अपने रूप से सूर्य को भी स्तब्ध कर देती है, वैसी क्या बिना पुण्य के मिल सकती है ? ऐसी अभया तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रही है। आओ-आओ, वह तुम्हारे उमाह में बैठी है। पंडिता के इतना कहने पर भी सुदर्शन का मन जरा भी नहीं भीगा । क्या नदी के वेग से सागर में क्षोभ उत्पन्न किया जा सकता है ? वहां से लौटकर पंडिता ने नमस्कार करते हुए, जब वह वृत्तान्त सुनाया, तब अभया भय छोड़ बोली- “अब यहां कोई दूसरा उपाय नहीं है । तू पुनः उसके पास जा । यदि वह किसी प्रकार भी आने के लिए तैयार न हो, तो उसे जबरदस्ती उठाकर ले आ; यही मुझे भाता है । मैं उसके साथ पुरुषायित करूंगी। जो बात दैवाधीन है, उसको कौन निवारण कर सकता है ? जो रुचे, उसे अवश ( पराधीन ) होने पर भी अपने वश में करना ही चाहिये । क्या विष के भय से नागमणि छोड़ देना उचित है ? तू क्यों आशंका करती है ? यहां जो कोई करंब ( कड़वी तूंबी) खाएगा, वह, हे माता, लोक में फजीहत होता हुआ स्वयं विडम्बना भोगेगा । २२. पंडिता का सुदर्शन को जबर्दस्ती राजप्रासाद में ले जाना तब पंडिता ने जाकर कामदेव स्वरूप सुदर्शन की आखें झप दीं, और उसे शीघ्र उठा लिया। आती हुई उसे जब किसी ने पूछा, तब उस विदुषी ने उत्तर दिया - राजा की प्रतिमा में अति अनुराग-युक्त हुई अभयादेवी पुतले को जगाएगी । किन्तु वह पुतला भग्न हो गया, अतएव हे पुत्र, मैं स्वयं जा कर यह दूसरा पुतला लेकर आई हूं। जब किसी और दूसरे ने भक्तिभाव से पूछा, तब उसने उसका निरसन कर दिया - तुम्हें इस चिन्ता से क्या ? किसी अन्य ने कहा - हे माता, मुझे कहो तो, तुम इस समय कहां गई थीं ? वह बोली- अरे, कहने से क्या लाभ? मेरे मार्ग में छूत हो गई, हूं-हूं, हे पुत्रो, हटो, दूर हटो। इस प्रकार उत्तर देते हुए, वह वहां पहुंची, जहां पौरद्वार के द्वारपाल थे। फिर उस विदुषी भयरहित होकर प्रासाद के सातों द्वारों में प्रवेश किया । द्वारपाल निश्चल खड़े रहे, मानों उन्हें किसी ने भींत पर लिखा हो । २३. रानी के शयनागार में सुदर्शन का धर्म-संकट लोगों के चित्त को प्रसन्न करने वाले उस राजप्रासाद में प्रविष्ट हो, पंडिता पंडित सुदर्शन को गद्दे पर ला छोड़ा । ऐसे समय में वह राजश्रेष्ठीपुत्र, सज्जनों का आनन्ददायी, देवों और साधुओं की वंदना करने वाला, धर्मरूपी रथ पर आरूढ, धैर्य में मंदर पर्वत के समान स्थिर, ऋद्धि में पुरंदर, तेज में दिनेश्वर तथा बुद्धि से जिनेश्वर, भावना में निष्ठित, कामोत्सर्ग में संस्थित, सुभग व अक्रोधी-सुदर्शन चिन्तन करने लगा - क्या मैं वह प्रेमकांड करूं, जो पंडिता ने बतलाया है ? हाय, हाय,
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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