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________________ ८. २१] सुदर्शन-चरित २१७ मानों सुन्दर कमल पर भ्रमरपंक्ति आ बैठी। कोई सौन्दर्यहीन दुर्भागिनी अपने प्रिय को किसी अन्य पर आसक्त-मन देखकर भूरने लगी कि रे दुष्ट हताश खल विधि, तूने मुझे सुन्दर सौभाग्यशालिनी क्यों न बनाया ? । १९. वेश्याएँ और उनके प्रेमी कहीं सुन्दर शृङ्गार करके गुण्डे वेश्या को देखकर टरटराने लगे। कहीं वेश्या अपने प्रेमियों का अपमान करती, और लंगड़े धनवान का भी सम्मान करती। कहीं एक गुण्डा रतिरमण करके, सन्तुष्ट हो, खोटा दाम देकर लापता हो गया। कहीं दासी प्रेमी के सेवक से संलग्न हो गई, और फिर उसकी कांछ पकड़ कर भाड़ा मांगने लगी। कहीं एक साग-सुन्दर वेश्या अपने हावभावों से प्रेमी का मन हरण करने लगी। इस प्रकार क्रमशः जब अर्द्धरात्रि व्यतीत हो गई, तब चन्द्र मन्द-प्रकाश हो गया- "हाय, यह वणीन्द्र उपसर्ग सहेगा। उस सज्जन की विपत्ति को कौन देखे ?" यही सोचकर मानों चन्द्र अस्त हो गया, और भ्रमर-समूह तथा जंगली भैसे के समान कृष्णवर्ण अन्धकार फैल गया। मानों विधि ने जगरूपी वस्त्र को नीली के रस में डुबा दिया हो; अथवा मानों अभया का अपयश प्रकट होकर दिखाई देने लगा हो । २०. पंडिता का सुदर्शन को प्रलोभन अन्धकार फैला देखकर पंडिता वहां गई जहां सेठों का अग्रणी सुदर्शन ध्यान-योग में स्थित था। वह प्रणाम करते हुए उसके पैरों से लग गई और बोली-यदि तुम्हारे धर्म में जीवदया है, तो तुम उस अनुरागवती, खिन्नगात्री राजपत्नी के जीव की रक्षा करो। हे स्वामी, जिसके द्वारा विरहाग्नि से जलती हुई स्त्री के जीवन की आशा न हो सके, उस मेलापक मंत्र से क्या लाभ ? अतएव देर मत करो। आओ, आओ, शीघ्र चलकर उस उन्मीलित-नेत्र, सुकुमार गात्री का आलिंगन करो। भला कहो तो, जिनेन्द्र सन्तुष्ट होकर भी तुम्हें कौन-सी बात प्रदान करेगा ? लो, आज ही तुम्हारे ध्यान का फल तुम्हें मिल रहा है। तुम मानिनी स्त्री के चित्तरूपी कमल के मित्र (सूर्य-सुहृद् ) हो। ( यह सारीय नाम का छंद कहा गया)। प्रणयसहित, रोमांचित-शरीर, सगुण, सुन्दर चरणों व सुन्दर मुखवाली राजपत्नी अभयादेवी ऐसी शोभायमान है, जैसी जलसहित, कंटीली, राजहंसों को खुब अपने आसपास भ्रमण करानेवाली व पत्रों से युक्त पद्मिनी। २१. अभया के प्रेम का संदेश अभया बिना भूषण के भी बहुत सुन्दर दिखाई देती है। भूषित होने पर तो वह त्रिभुवन में सर्वश्रेष्ठ हो जाती है। कहा जाता है कि अप्सराएँ देवों और २८
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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