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________________ २१६ नयनन्दि विरचित [८.१७का स्मरण करते हुये कार्योत्सर्ग मुद्रा में खड़ा हो गया। इतने में ही निशाचरों का दलन करनेवाला सूर्य प्रहरों के व्यतीत होने से, अपनी किरणों का प्रसार करता हुआ भी भवितव्यतावश अस्त हो गया ; जिस प्रकार कि दानवों का दलन करने वाला शूरवीर (अथवा सुर-देव ) भी प्रहारों से आहत होकर, पाँव पसार कर भवितव्यतावश मृत्यु को प्राप्त होता है। १७. सायंकाल का दृश्य __ मित्र ( सूर्य ) के वियोग में मुरझाई हुई नलिनी के पुष्प-कोष का विकास उसी प्रकार नहीं हुआ, जिस प्रकार अपने मित्र (प्रियतम) के वियोग में एक महासती लजित होकर अपना चूड़ाबंध प्रकट नहीं करती। वह अत्यन्त शोक से अपने ललित अंगों को शिथिल और भ्रमररूपी नयनों से युक्त पंकजरूपी मुख को मलिन कर रही थी। उसी के दुःख से दुखित होकर मानों चकवे अपनी चकवियों का संग छोड़कर रह रहे थे। आज भी चकवा उसी क्रम को चला रहा है। इस प्रकार अपनी स्वीकृत बात को कोई विरला ही पालन करता है। कुमुदों के समूह दुर्जनों के समान दिखाई दिये, चूँ कि वे मित्र ( सूर्य या सुहृद ) का विनाश होने पर भी विकसित हुए। स्नान करके श्रुतिधर, लोकाचार से, तथा द्विजवर ( श्रेष्ठ ब्राह्मण ) सन्ध्यावन्दन हेतु सूर्य को मानों जलाञ्जली देने लगे। किन्तु अस्त हो जाने के कारण स्पष्टतः वह उसे पा तो नहीं रहा था। रात्रि का समय हो जाने से नभोमंडल (अन्धकार से ) आच्छादित हो गया, मानों वह मेघमालाओं से विराजित हो गया हो। उस समय आकाश में अपनी विमल प्रभा से युक्त अर्द्धचन्द्र उदित होकर ऐसा शोभायमान हुआ, मानों नभश्री ने लोगों को अपना स्फटिक का कटोरा दिखलाया हो। १८. कामिनियों की काम-लीलाएँ उसी समय नक्षत्रों का समूह भी चमक उठा, मानों आकाश-लक्ष्मी ने पुष्पों का पुंज बिखेर दिया हो। ऐसे समय में स्थूल स्तनोंवाली कामिनियाँ प्रहृष्ट होकर अपने आभूषण धारण करने लगीं। कोई कहती-हे सखी, गुणरूपी रत्नों के खान वल्लभ को मनाकर झट ले आ। कोई अपनी सौत की ईर्षा करती और अपने प्रियतम को खींचकर उसे केशों से पकड़ती। किसी का प्रिय कांत रुष्ट होकर बाहर जाने लगा, तो वह उसे बलपूर्वक अपने हार से बांधकर रोकने लगीं। कोई, जब उसका पति हर्षित होकर आलिंगन के लिये आया, तो वह खेल करती हुई छिपकर खड़ी हो गई। कोई अपने प्रिय का पुनः पुनः आलिंगन कर उसे अपने सघन स्तनों से वक्षस्थल पर चपेटने लगी। किसी की मानिनी के मुख पर दृष्टि पड़ गई,
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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